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Friday, January 25, 2013

हिन्दी साहित्य में महाश्वेत धारा का लाल सपना-हिन्दी लेख चिंत्तन hindi sahitya mein mahashwet dhara ka lal sapna-hindi lekh chittan)

         पश्चिम बंगाल की एक साहित्यकारा का यह तर्क हैरान करने वाला है कि नक्सलवाद फैलाने वालों को भी सपने देखने का हक है।   हम यह तो मानते हैं कि सभी लोगों को सपने देखने का हक है पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि कानून तोड़ने या बंदूक से दूसरे को मारने पर भी वह बने रहने दिया जाये।  एक बात तय रही कि बंदूक थामने वाला अपने विरोधी की बोलने की आजादी तो छोड़िये उसका जिंदा रहने का अधिकार भी नहीं स्वीकारता।  ऐसे में उसके सपने देखने के हक की बात कोई सात्यिकार करने लगे तो समझिये उसे अपने लेखकीय अहंकार से उपजी आत्मुग्धता के भाव ने धर दबोचा  है या अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव की अनुभूति ने कुंठित कर दिया है।
        पश्चिम बंगाल में कुछ साहित्यकार हमारी दृष्टि से गजब के हुए हैं।  इनमें शरत चंद्र और पूर्णिमा देवी के उपन्यास हमारे मन को भी बहुत भाये हैं।  पूर्णिमा देवी का स्वर्णलता उपन्यास एक अत्यंत रोचक रचना है।  एक बात निश्चित है कि पश्चिम बंगाल के लेखकों  की प्रसिद्ध रचनायें  बंगाल की सामाजिक  पृष्ठभूमि पर आधारित हैं।  उनकी रोचकता इसलिये भी अधिक बढ़ जाती है क्योंकि वहां की कुछ परंपरायें संपूर्ण भारतीय समाज से मेल खाती है। यहां कुछ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि हम संपूर्ण भारतीय समाज में  सांस्कारिक, भाषाई तथा धार्मिक पंरपराओं में विभिन्नता पाते हैं।  सीधी बात कहें तो किसी भी एक क्षेत्रीय भाषा के साहित्य में संपूर्ण भारतीय समाज को नहीं जोड़ा जा सकता। कहा जाता था कि बंगाल जो आज सोचता है वह पूरा भारत कल सोचता है। यह बात तब कही जाती थी जब वहां जनवादी साहित्यकारों का गढ़ बन गया था।  उनका यह आत्मविश्वास राज्य से  निकटता के कारण बना।  उन्हें लगने लगा कि एक दिन उनके विचारों की राज्य प्रबंधन व्यवस्था पूरा देश स्वीकार कर लेगा।  इन जनवादी बुद्धिमानों का यह यकीन था कि वह एक दिन पूरे देश में लाल रंग फैला देंगे। 
        अध्यात्मिक ज्ञानियों की दृष्टि में उनका विचार हमेशा ही सामाजिक सरोकारों से परे रहा है। पश्चिम बंगाल में सत्ता और जनवादियों का संयुक्त वर्चस्व लंबे समय तक रहा पर वहां को समाज फिर भी देश के ढांचे पर ही चला।  भारत में लोकतंत्र है इसलिये हमेशा ही किसी एक राज्य प्रबंधन विचाराधारा का लंबे समय तक चलना संभव नहीं है।  यही बंगाल में हुआ जब जनवादियों की प्रिय प्रबंधन विचारधारा भी पराजित हुई।  अब जनवादी बुद्धिमान बिना राज्य के सहयोग के मैदान संभाल रहे हैं और उनको इस बात का अफसोस है कि उनके पास आम भीड़ के पास अपनी बौद्धिक शक्ति का प्रमाण पेश करने का साधन नहीं है।   राज्य का समर्थन, धन और प्रतिष्ठा यह तीनों न हो तो आम मनुष्य में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने में कठिनाई होती  है।  जनवादियों के पास अब केवल अपनी विचार शक्ति ही बची है जिसके सहारे वह अपना अभियान चलाये हुए है।
   उनकी विचार शक्ति हमेशा ही राज्य पद, पैसे और प्रतिष्ठा के इर्दगिर्द ही घूमती है।  वह समाज में सभी को समान देखना चाहते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान साधकों के लिये यह एक कभी पूरा न होने वाला सपना है।  जनवादी समाज के हर विषय में राज्य का हस्तक्षेप चाहते हैं। उनका मानना है कि समाज में सभी बुद्धिमान नहीं है इसलिये उनके समानता लाने का काम राज्य को करना चाहिये।  राज्य उनकी दृष्टि में एक श्वेत संस्था है।  उसमें सक्रिय लोगों के अज्ञानी, भ्रष्ट और अकुशल होने की कोई संभावना नहीं है-यह अलग बात है जिस व्यवस्था के प्रबंधन से  उनका मतभेद है उस पर इसी तरह के आरोप वह लगाते हैं।  जनवादी बुद्धिमानों  की यह राज्य के हमेशा पवित्र और श्वेत सोच उनको अयथार्थवादी बनाती है तो जो प्रबंधन उनकी  विचाराधारा से अलग चलता है उसके प्रति आक्रोशित करता है।  वह अपना आक्रोश अहिंसक तरीकेि से प्रचार माध्यमों में व्यक्त करते हैं पर उनके अनुयायी उससे आगे जाकर हिसक भी हो जाते हैं।  यह हिंसक तत्व समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकते पर उनके विचारों में अपना प्रतिबिंब देखकर यह बुद्धिमान प्रसन्न होते है।
         देखा जाये तो साहित्यकारों में कुछ लिपिक तरह के भी होते हैं।  वह समाज में घटित किसी घटना को जस का तस अपनी रचना बना लेते हैं।  कुछ जोड़ते हैं कुछ घटाते हैं।  उनकी रचनायें किसी समस्या को उबारती हैं पर निष्कर्ष नहीं प्रस्तुत करती। उनको इनाम भी मिलते हैं। इससे उनका मनोबल इतना बढ़ जाता है कि अपने विचार को वह इस कदर प्रमाणित मान लेते है कि उससे प्रथक चलने वाले शेष  समाज को  बुद्धिहीन घोषित कर देते हैं।  उनके विचारों में दोहरापन है। एक तरफ वह समाज पर इसलिये राज्य का कठोर  नियंत्रण  देखना चाहते हैं कि सभी लोग बुद्धिमान नहीं है पर अपनी रचनाओं में निष्कर्ष प्रस्तुत न कर यह आशा करते हैं कि समाज स्वयं ही हल निकाले।
         सच बात तो यह है कि ऊपर हमने लिखा था कि भारतीय समाज में सांसरिक, भाषाई तथा धार्मिक संस्कारों की दृष्टि से  भिन्नता है पर  अध्यात्मिक दृष्टि से पूरा समाज एक है।  यही बात इस भिन्नता को खत्म कर देती है।  भारतीय अध्यात्म में श्रीवृद्धि करने वाले सभी परम पुरुष सभी जगह पूजे जाते हैं।  इसलिये भारतीय अध्यात्म विषय से परे होकर लिखने और सोचने वाले चाहे जितने भी अपने वैज्ञानिक विचारों को अंतिम सत्य माने पर उसे दूसरे लोग स्वीकार नहीं करते।  भारतीय अध्यात्म में राज्य, परिवार और व्यक्ति के संचालन के जो वैज्ञानिक तरीके प्रतिपादित किये गये हैं उनकी तुलना किसी विदेशी विचारधारा से हो ही नहीं सकती।  समाज में मनुष्य के बीच बुद्धि, धन, और ज्ञान के स्तर पर भेद रहेगा पर सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिये,  यह बात हमारा ही अध्यात्म दर्शन कहता है।  यह अलग बात है कि हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के साहित्य के कुछ महानुभाव यह श्वेत धारा भी प्रवाहित करते हैं कि सभी लोग समान हो जायें तो समाज की दृष्टि भी समान हो जायेगी।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

Monday, January 14, 2013

मकर सक्रांति की बधाई और इलाहाबाद महाकुंभ के लिये शुभकामनायें-हिन्दी लेख (makar sakranti kee badhai aur illahbad or allahabadmaha kumbh ke liye shubhkamanaen

         मकर सक्रांति पर इलाहाबाद में महाकुंभ प्रारंभ हो गया।  यह बरसों पुरानी पंरपरा है और भारतीय संस्कृति का ऐक ऐसा हिस्सा है जिसे देखकर कोई  भी विदेशी चमत्कृत हो सकता है।  जहां तक भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का प्रश्न है उसकी दृष्टि से इसे सकाम भक्ति का प्रतीक माना जा सकता है। गंगा में नहाने से पुण्य मिलता है यही सोचकर अनेक श्रद्धालु इसमें नहाते हैं।  अनेक निष्काम श्रद्धालु भी हो सकते हैं जो मकर सक्रांति में गंगा में यह सोच नहाते हैं कि पुण्य मिले या नहंी हमें तो इसमें नहाना है।  इससे उनको मानसिक शांति मिलती है।  श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करने वाले ज्ञान साधक किसी भी प्रकार की भक्ति पद्धति का विरोध नहीं करते भले ही वह उनके हृदय के प्रतिकूल हो।
     यह तय है कि इस संसार में दो प्रकृति के लोग-असुर और दैवीय-रहेंगे।  चार प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी-भी यहां देखे जा सकते हैं।  उसी प्रकार त्रिगुणमयी माया -सात्विक, राजसी और तामसी-के वशीभूत होकर लोग यहां विचरण करेंगे। इसे परे कुछ योगी भी होंगे पर उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक होगी, यह भी  अंतिम सत्य है।  अंतर इतना रह जाता है कि ज्ञानी लोग मूल तत्वों को जानते है इसलिये सहअस्तित्व की भावना के साथ रहते हैं जबकि अज्ञानी अहंकारवश सभी को अपने जैसा दिखने के लिये प्रेरित करते हैं।  जो कुंभ में नहाने गये वह श्रेष्ठ हैं पर जो नहीं करने गये वह बुरे हैं यह भी बात नहीं होना चाहिए।
            जिन्कों भारतीय संस्कृति में दोष दिखते हैं उनके लिये यह कुंभ केवल एक पाखंड है।  ऐसी दोषदृष्टि रखने वाले अज्ञानियों से विवाद करना व्यर्थ हैै।  उन अज्ञानियों के अपने खोजे गये सांसरिक सत्य हैं पर अध्यात्मिक सिद्धि की समझ से उनका वास्ता कभी हो नहीं सकता क्योंकि उनके अहंकार इतना भरा है कि जैसे कि इस विश्व को बदलने की भारी श्ािक्त उनके पास है।
        बहरहाल अब अपनी बात गंगा और इलाहाबाद के महाकुंभ पर भी कर लें।  समाचार आया कि गंगा के प्रदूषित जल की वजह से नाराज चारों शंकराचार्य वहां नहीं आये।  उनके न आने के बावजूद इस खबर की परवाह किये बिना श्रद्धालू लोग नहाने पहुंचें।  शंकराचार्य आये या नहीं इसमें बहुत ही कम लोगों की दिलचस्पी  दिखाई।  यह उन लोगों के लिये बहुत निराशाजनक है जो हिन्दू धर्म को एक संगठित समूह में देखना चाहते हैं।  दरअसल विदेशी धर्मो को जिस तरह एक संगठन का रूप दिया गया है उससे प्रेरित कुछ हिन्दू धार्मिक विद्वान चाहते हैं कि हमारा समूह भी ऐसा बने।  यह हो नहीं पा रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे धर्म के सांस्कृतिक भिन्नताये बहुत हैं।  भौगोलिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार भोजन, रहन सहन और कार्य शैली में भिन्नतायें हैं।  मुख्य बात यह कि अपने  अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार  मानते हैं कि सारे विश्व के लोग एक जैसे नहीं बन सकते। इसके विपरीत विदेशी धर्मों के प्रचारक यह दावा करते हैं कि वह एकदिन सारे संसार को अपनी धार्मिक छतरी के अंदर लाकर ही मानेंगे।   इसके विपरीत हमारा भारतीय अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि सभी मनुष्यों के साथ अन्व जीवों पर भी समान दृष्टि रखना चाहिये जबकि विदेशी धर्म प्रचारक यह दावा करते हैं कि हम तो सारे विश्व के लोगों को एक ही रंग में रंगेंगे ताकि उन पर सभी समान दृष्टि स्वतः पड़ेगी।   हम उन पर आक्षेप नहीं करते पर सच्चाई यह है कि पश्चिमी में सदियों से चल रही धार्मिक वैमनस्य की भावना ने हमारे देश को भी घेर लिया है।  भारत में कभी भी जातीय और धार्मिक संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता जबकि विदेशों में धार्मिकता के आधार पर अनेक संघर्ष हो चुके हैं। 
       बहरहाल समस्त भारतीय धर्म व्यक्ति के आधार पर वैसे ही संगठित हैं उनको किसी औपचारिक संगठन की आवश्यकता नहीं है।  अभी तो ढेर सारे प्रचार माध्यम हैं जब नहीं थे तब भी लाखों लोग इन कुंभों में पहुंचते थे। यह सब व्यक्ति आधारित संगठन का ही परिणाम है।  हमारे जो बुद्धिमान लोग हिन्दू धर्म को असंगठित मानते हैं उन्हें यह समझना चाहिये कि विदेशी विचाराधारायें पद पर आधारित संगठनों के सहारे चलती हैं।  चुने हुए लोग  पदासीन होकर भगवत्रूप होने का दावा प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा  वहां  पहले राष्ट्र फिर   समाज और अंत में  व्यक्ति आता  है जबकि हमारे यहां व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र का क्रम आता है।  हमारा राष्ट्र इसलिये मजबूत है क्योंकि व्यक्ति मजबूत है जबकि दूसरे राष्ट्रों के लड़खड़ाते ही उनके लोग भी कांपने लगते हैं। महाकुंभ में हर वर्ग, जाति, समाज, भाषा और क्षेत्र के लोग आते हैं। उनको किसी संगठन की आवश्यकता नहीं है।
     चारों शंकराचार्य  जिस गंगा के प्रदूषित होने पर दुःखी हैं वह कई बरसों से दूषित हो चुकी है। ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म प्रदर्शित हुए बरसों हो गये हैं। जब वह दूषित होना प्रारंभ हुई थी तब भी अखबारों में समाचार आने लगे थे।  तब हिन्दू धर्म को सगठित रखने का दावा करने वाले यह शंकराचार्य कहां थे?  उन्होंने उसे रोकने के लिये क्या प्रयास किया? क्या लोगों को प्रेरणा दी!  देश की हर छोटी बड़ी घटना पर अपना चेहरा दिखाने के आदी अनेक  धार्मिक पुरुष हो चुके हैं।  इनमें कुछ शंकराचार्य भी हैं।   गंगा के प्रदूषित होने के समाचार उन्होंने  न देखे या न सुने हों यह संभव नहीं है।  अब उनका दुःखी होना सामयिक रूप से प्रचार पाने के अलावा कोई अन्य प्रयास नहीं लगता।
        दरअसल देखा यह गया है कि हमारे अनेक धार्मिक पुरुषों के यजमान अब ऐसे पूंजीपति भी हैं जो उद्योग चलाते हैं।  गंगा में प्रदूषण उद्योगों के कारण फैला है।  अगर इन शंकराचार्यों के साथ मिलकर अन्य धार्मिक शिखर पुरुष कोई अभियान छेड़ते तो यकीन मानिये उनको मिलने वाले दान पर बुरा प्रभाव पड़ सकता था।  सच बात तो यह है कि हमारे धर्म का आधार तत्वज्ञान है और जो संगठन बने हैं उनका संचालन वह माया करती है जिस पर यह संसार आधारित है।  धर्म रक्षा धन से ही संभव का सिद्धांत अपनाना बुरा नहीं है पर उसको वैसा परिणामूलक नहीं बनाया जा सकता जिसकी चाहत हमारे धार्मिक शिखर पुरुष करते है।  वह तत्वज्ञान से ही संभव है पर उसमें रमने वाला आदमी फिर जिस आनंद के साथ जीता है उसे हम रैदास के इस कथन से जोड़ कर देखें ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ तो बात समझ में आ सकती है।
         बहरहाल इलाहाबाद महाकुंभ में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को शुभकामनायें तथा मकर सक्रांति के पर्व पर सभी ब्लॉग मित्रों, पाठकों और प्रशंसकों को बधाई।  हां, प्रशंसक भी जोड़ने पड़ेंगे क्योंकि अनेक लोग अक्सर लिखते हैं कि हम आपके लेखकीय रूप के प्रशंसक  हैं।  जय श्रीराम, जय श्रीकृष्ण
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

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Tuesday, January 1, 2013

कोई अगर कहें ‘हैप्पी न्यू ईयर तो क्या उससे लड़ने लगें-हिन्दी चिंत्तन लेख (agar koye kahe "happay new year' to usse kaya ladne lagen-hind chittan lekh)

               वर्ष 2013 आ गया। अनेक लोगों का कहना है की हम भारतीयों   को यह अंग्रेजी वर्ष नहीं मनाना   चाहिए।   खासतौर से यह बात हिन्दू धर्म को कट्टरता से मानने का दावा करने  वालों  की तरफ से कही  जाती है।  मगर इन लोगों का कोई प्रभाव नहीं होता।  आखिर क्यों?  सच बात तो यह है  कि अनेक लोगों की तरह हम भारतीय अध्यात्मवादी लोग  भी उनकी बात को महत्व देते रहे हैं ।  अब लगने लगा है कि  वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस  और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व भी अब भारतीय समाज का ऐसा हिस्सा बन  गए हैं, जिन्हें अलग करना अब संभव नहीं है।  दरअसल जिन लोगों ने इन पर्वों को हमेशा ही वक्र दृष्टि से देखते हुए अपने धर्म पर दृढ़ रहने का मत व्यक्त किया है वह सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे हैं।  उन्होंने धार्मिक रूप से कभी अपने देश का अध्ययन नहीं किया।  हालांकि यह लोग अं्रग्रेजी शैली के समर्थक हैं पर वैसा सोच नहीं है। 
         कम से कम एक बात माननी पड़ेगी कि अंग्रेजों ने हमारे समाज को जितना समझा उतने अपने ही लोग नहीं समझ पाये।  इन्हीं अंग्रेजों के अखबार ने एक मजेदार बात कही जो यकीनन हम जैसे चिंतकों के लिये रुचिकर थी।  अखबार ने  कहा कि भारत के धर्म पर आधारित संगठन और उनके शिखर पुरुष अपने भक्तों को वैसे ही अपने साथ जोड़े रखते हैं जैसे कि व्यवसायिक कंपनियां। वह अपने संगठन कंपनियों की तरह चलाते हैं कि उनके भक्त समूह बने रहें।
         हमने उनके नजरिये को सहज भाव से लिया।  हम यह तो पहले से मानते थे कि भारत में धर्म के नाम पर व्यापार होता है पर इससे आगे कभी विचार नहंी किया था।  जब यह नजरिया सामने आया तो फिर हमने उसी के आधार पर इधर उधर नजर दौड़ाई।  तब भारतीय धार्मिक संगठनों में वाकई यह गजब की व्यवसायिक प्रवृत्ति दिखाई दी।  जिस तरह देशी विदेशी कंपनियां अपने उत्पादों के विक्रय करने के लिये नयी पीढ़ी को  विज्ञापनों के  माध्यम से आकर्षित करने के अनेक तरह के उपक्रम करती हैं वैसे ही भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी यही प्रयास करते हैं।  भले ही बड़े व्यवसायिक समूहों ने प्रचार माध्यमों से युवा पीढ़ी में  वेलेन्टाईन डे, क्रिस्मस  और न्यू ईयर जैसे अंग्रेजी पर्व अपने लाभ के लिये प्रचलित करने में योगदान दिया है पर भारतीय धार्मिक संगठन और उनके शिखर पुरुष भी इन्हीं पर्वों का उपयोग अपने भक्त समूह को बनाये रखने के लिये कर रहे हैं।  यही आकर इन्हीं पर्वों के विरोधी सामाजिक संगठन तथा कार्यकताओं के लिये ऐसी मुश्किल खड़ी होती है जिसे पार पाना संभव नहीं है।  अनेक मंदिरों में नर्ववर्ष पर विशेष भीड़ देखी जा सकती है।  इतना ही नही मंदिरों में  खास सज्जा भी देखी जा सकती है।  हम जैसे नियमित भक्त तो दिनों के हिसाब से मंदिरों में जाते रहते हैं-जैसे कि सोमवार को शंकर जी तो शनिवार को नवग्रह और मंगलवार को हनुमान जी-अगर कोई खास सज्जा न भी हो तो भी भक्तों को इसकी परवाह नहीं है।  परवाह तो किसी भक्त को नहीं है पर जो लोग इन मंदिरों के सेवक या स्वामी है उन्हें लगता है कि कुछ नया करते रहें ताकि युवा पीढ़ी उनकी तरफ आकर्षित रहे।  वह समाज में कोई नया भाव पैदा करने की बजाय उसमें मौजूद भाव का ही उपयोग करना चाहते हैं।   इतना ही नही इन मंदिरों में जाने पर केाई परिचित अगर बोले कि हैप्पी न्यू इयर तो भला भगवान की दरबार में हाजिरी का निर्मल भाव लेकर गया कौन भक्त अपने अंदर कटुता का भाव लाना चाहेगा।  इतना ही नहीं कुछ संगठित पंथ तो क्रिसमस, वेलेन्टाईन डे और नववर्ष पर अपने शिखर  पुरुषों को इन पर्वों के अवसर पर खास उपदेश भी दिलवाते हैं। 
         हम जैसे अध्यात्मिक व्यक्तियों की दिलचस्पी उन विवादों में नहीं होती जिनके आधार कमजोर हों।  जो सामाजिक कार्यकर्ता इन पर्वों को मनाये जाने का विरोध करते हैं वह अपने जीवन में उस पर अमल कर पाते हों यह संदेहपूर्ण है।  जब कोई समाज से जुड़ा है तो वह अपने बैरी नहंी बना सकता।  मान लीजिये हम नहीं मानते पर अगर कोई कह दे कि हैप्पी क्रिसमस, हैप्पी न्यू ईयर या हैप्पी वेलेन्टाईन डे तो क्या उसे लड़ने लगेंगे।  एक बात निश्चित है कि भारत में धर्म के विषय पर आज भी धार्मिक साधु, संतों और प्रवचको की बात अंतिम मानी जाती है।  सामाजिक कार्यकताओं को  इन पर्वो के विरोधी  अभियान के प्रति उनका समर्थन उस व्यापक आधार पर नहीं मिल पता यही कारण है कि इसमें सफलता नहीं मिलती।  हालांकि कुछ साधु, संत और प्रवचक इन सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात का समर्थन करते हैं पर वह इतना व्यापक नहीं है।  चूंकि भारतीय धार्मिक संगठन और शिखर पुरुष भी  एक कंपनी की तरह अपने भक्त बनाये रखने की बाध्यता को स्वीकार करते हैं इसलिये वह उनके  तत्वज्ञान धारण करने की बजाय व्यवसायिक योजनाओं में जुटे रहते हैं।  हमारा मानना है कि केवल तत्वज्ञान के आधार पर हमेशा अपने पास भीड़ बनाये रखना कठिन है  और धार्मिक संगठन तथा उनके शिखर पुरुषों में यही बात आत्मविश्वास कम कर देती है।  यह आत्मविश्वास तब   ऋणात्मक स्तर पर पहुंच जाता है जब तत्वज्ञान को धारण करने से ऐसे पंथ या संगठनों के शिखर पुरुष स्वयं ही दूर होते हैं।  अपना नाम और धन जुटाने के चक्कर मे वह सब ऐसे प्रयास करते हैं जैसा कंपनियां करती है।  यही कारण है कि अंग्रेजी पर्व फिलहाल तो समाज में मनाये ही जा रहे हैं क्योंकि कहीं न कहीं धार्मिक तत्व उन्हें समर्थन दे रहे हैं।
          हमारे एक करीबी  मित्र ने सुबह मिलते ही कहा-’’हैप्पी न्यू ईयर!’’
          वह सब जानता था इसलिये हमने उससे कहा कि ‘‘हमारा नया वर्ष तो मार्च में आयेगा।’’
             वह बोला-‘‘यार, तुम कैसे अध्यात्मिकवादी हो।  कम से कम कुछ उदारता दिखाते हुए बोले ही देते कि ‘‘हैप्पी न्यू ईयर’’
    इससे पहले कि हम कुछ बोलते। एक अन्य परिचित आ गये। वह भी अपना हाथ मिलाने के लिये आगे बढ़ाते हुए बोले-‘‘नव वर्ष मंगलमय हो।’
     हमने हाथ बढ़ाते हुए उनसे कहा‘‘आपको भी नववर्ष की बधाई।’
     वह चले तो हमारे मित्र ने हमसे कहा‘‘उसके सामने तुमने अपना अध्यात्मिक ज्ञान क्यों नहीं बघारा।’’
       हमने अपने मित्र से कहा‘‘अपना अध्यात्मिक ज्ञान बघारने के लिये तुम्हीं बहुत हो।  अगर  इसी तरह हर मिलने वाले से नववर्ष पर बधाई मिलने पर ज्ञान बघारने लगे तो शाम तक घर नहीं पहुंचने वाले।’’
          एक धार्मिक शिखर पुरुष ने वेलेन्टाईन डे को मातृपितृ दिवस मनाने का आह्वान किया था।  अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओ को अच्छी लगी पर अनेक लोगों ने यह सवाल किया कि अगर वेलेन्टाईन डे को समाज से बहिष्कृत करना है तो फिर उसका नाम भी क्यों लिया जाये?  तय बात है कि दिन तो वह होना चाहिये पर हमारे हिसाब से मने।  यह बात तो ऐसे ही हो गयी कि मन में लिये कुछ ढूंढ रहा आदमी किसी व्यवसायिक कंपनी के पास न जाकर हमारी धार्मिक कंपनी की तरफ आये।
        हम जैसे योग साधकों और गीता पाठकों को लगता है कि  ऐसे विवाद किसी समाज की दिशा तय नहीं करते।  फिर यह अपने अध्यात्मिक ज्ञान  और सांसरिक विषयों दक्षता के अभाव के कारण आत्मविश्वास की कमी को दर्शान वाला भी है।  चाणक्य, विदुर, कौटिल्य और भर्तुहरि  जैसे महान दर्शनिकों ने हमारे अध्यात्मिक भंडार  ऐसा सृजन किया जिसमें ज्ञान तथा विज्ञान दोनों है।   तुलसी, सूर, रहीम और मीरा जैसे महानुभावों ने ऐसी रचनायें दी जिसके सामने  दूसरे देशों का साहित्य असहाय नज़र आता है। यह आत्मविश्वास जिसमें होगा वह अंग्रेजी पर्वो के इस प्रभाव से कभी परेशान नहीं होगा।   
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
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