घटना इंग्लैंड की है पर संदर्भ भारत से भी
जुड़ा है। व्यस्तम सड़क पर एक अंग्रेज युवा
महिला ने एक बुजुर्ग सिख व्यक्ति को बुरी तरह पीटा। वहां आते जाते लोग यह दृश्य
देखकर खामोश रहे। उस अंग्रेज युवती ने सिख
बुजुर्ग को क्यों पीटा? उनकी
गलती थी या किसी भ्रम में पड़कर उस युवती ने उनका अपमान किया? क्या उसने उनको गैर अंग्रेज होने की वजह से
मारा? इन प्रश्नों पर भारतीय
प्रचार माध्यमों ने अधिक प्रकाश नहीं डाला बल्कि वहां व्याप्त नस्लवाद का प्रमाण
कहकर यहां दर्शकों के हृदय में वेदना पैदा की।
तय बात है कि यह उनका एक व्यवसायिक प्रयास है। इस पर बहस कहीं नहीं होती दिखी क्योंकि इस घटना
से जुड़े अनेक तथ्य अंधेरे में है। एक बात
निश्चित है कि उस युवती के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं था कि वह किसी बुजुर्ग को इतनी
बेरहमी से पीटे। उस अंग्रेजी मेमसाहब में
अपने गोरे रंग का अहंकार था या फिर भारतीय कौम से घृणा का भाव यह पता नहीं चल
पाया। हम इस वेदनापूर्ण दृश्य को देखकर
भावविह्ल तो हो गये पर चिंत्तन की क्षमता नहीं खोयी।
संभव है यह नस्लवाद का परिणाम हो पर हम
इसे उस अंग्रेजवाद से जोड़कर भी देख रह हैं जो अब हमारे देश में आ गया है। सड़क पर चलते हुए केवल अपनी जान बचाने की सोचो
बाकी जो हो रहा है उससे मुंह फेर लो-यही अंग्रेजवाद है। जिस तरह वह लड़की बुजुर्ग को पीट रही थी वह बुरा
था पर जो लोग देखकर भी खामोश थे वह भी कम बुरे नहीं थे। संभव है कि वहां अधिकतर नस्लवादी मौजूद हों पर
सभी नहंी हो सकते। देखने वालों में कुछ खुश होते होंगे कि एक भारतीय पिट रहा है पर
सभी की सोच ऐसी नहंी हो सकती। जिनकी थी उनकी परवाह हम नहंी करते पर जिनको यह अच्छा
नहीं लगा होगा उन्होंने क्या किया? उनकी
खामोशी में ही छिपा है वह अंग्रेजवाद जिसकी मौजूदगी हम अपने देश में ं भी अनेक
अवसरों पर देख चुके हैं।
हमारे देश के प्रचार माध्यमों में
ऐसी अनेक खबरें आयी हैं जिसमें अनेक स्त्री पुरुष सामूहिक हिंसा और अपमान का शिकार
भीड़ के बीच होते दिखाये गये। घटना के दौरान
अपराधी कम दर्शक ज्यादा रहे! सभी
अपराधियों के साथ कहीं पर विरोध में कोई प्रयास होता नहीं दिखा। अकेला निरीह मनुष्य कुछ अपराधियों से सार्वजनिक
रूप से मार खा रहा है या अपमान झेल रहा है।
पास में भीड़ खड़ी है एकदम बुत की तरह!
ऐसा लगता है कि पास में मनुष्य नहीं पत्थर खड़े हैं-यह भी कह सकते हैं कि
पत्थर की बनी मानवी मूर्तियां खड़ी
हैं। कहा जाता है कि अंग्रेज लोग मरने से
डरते हैं पर अब भारत में भी यही बात दिखने लगी है।
ऐसा क्यों हुआ? हमें शिक्षा तथा मनोरंजन के साधनों में व्याप्त
अंग्रेजी प्रवृत्ति इसके लिये जिम्मेदार दिखती है। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति में अध्ययन करने के बाद
आदमी केवल नौकरी या गुलामी लायक ही रह जाता है।
गुलाम या नौकर कभी साहसी नहीं हो सकता।
हमारे यहां सर्वशिक्षा अभियान चल रहा है। इसका मतलब क्या है? कहा
जाता है कि सभी को साक्षर तो होना चाहिये ताकि अपने जीवन के रोजमर्रा का काम आराम
से किया जा सके। हमारा मानना है कि
शिक्षित या साक्षर न होना कोई अभिशाप नहीं है।
हमने देखा है कि निरक्षर व्यक्ति भी अपना काम पड़ने पर शिक्षित की शरण लेकर
आगे बढ़ जाते हैं। अनेक निरक्षर लोगों को
रुपये का रंग देखकर ही यह पहचान हो जाती है कि उसका मूल्य क्या है? मुश्किल
तब लगती है जब शिक्षित लोग कायरों जैसा व्यवहार करते हैं। उस समय कायर बनाने वाली पूरी शिक्षा पद्धति बेकार लगती है। बची खुशी बहादुरी फिल्मों ने छीन ली।
बहुत समय हमने एक फिल्म देखी थी। मुंबई शहर पर आधारित उस कहानी में खलपात्र एक
महिला को सरेआम निर्वस्त्र करता है और आम लोग केवल देख रहे हैं। उस फिल्म को देखकर हमें लगा कि यह केवल बड़े शहर
होने के कारण मुंबई में ही संभव है क्योंकि उस नायिक का आवास एक सभांत कालौनी में
था। उस समय छोटे शहरों में इतने सभ्रांत लोगों की संख्या नहीं दिखती
थी जो ऐसे कठोर व्यवहार पर उत्तेजित होने पर भी
खलपात्र पर कार्यवाही नहंी करते।
जैसे जैसे शहरों में सभ्रांत वर्ग बढ़ा वैसे कायरता बढ़ी है। उस समय कथित असभ्रांत समाज के सदस्यों से -जिसमें हम उस समय अपने को
शामिल पाते थे- उत्तेजना में आकर अन्याय
के विरुद्ध खलपात्र पर हमले होने की
संभावनायें तो रहती थीं पर अब फिल्मों ने वह भी समाप्त कर दिया है। अधिकतर फिल्मों में खलपात्र से सामना करने वाले
नायकों की मां या पिता का कत्ल या बहिन से बलात्कार होने के इतने दृश्य दिखाये जा
चुके हैं कि अब सभ्रांत हो या असभ्रांत वर्ग वह डरपोक हो गया है। किन्हीं किन्हीं
फिल्मों में सहनायकों को मरते भी दिखाया है। खलपाात्र का नाश अकेला नायक करता है
उस समय भीड़ केवल तालियां बजाने या बधाईयां देने के लिये आती है। हर फिल्म में नायक को ही विजय मिलती है पर यह
भी देखा जा रहा है कि यह भूमिकायें अब फिल्मी बच्चों के लिये सुरक्षित हो गयी हैं।
ऐसे में आम युवक या युवती यथार्थ में खलपात्रों का सामना करने की कल्पना भी नहीं
कर सकता। जहां नायकत्व पाने का सपना नहीं देखा जा सकता वहां खलपात्रों का मार्ग
सुगम हो जाता है-अपने समाज में हम इसके प्रभाव देख सकते हैं। भारतीय शिक्षा तथा
फिल्मों पर अंग्रेजी प्रभाव है। शिक्षा और फिल्मों का प्रभाव समाज पर पड़ता है और
ऐसे में हम नायकत्व पाने का सपना मर जाने के बाद जीवंत अभिनय करने की संभावनाओं का
जिंदा नहीं रख सकते। शिक्षा तथा फिल्मों का मूलरूप से आधार अंग्रेजवाद ही है।
अंग्रेेंजी जैसी अवैज्ञानिक भाषा का जहां विद्वान लोग केवल इसलिये समर्थन करते हों
कि वह विदेश में नौकरी पाने का जरिया है और जहां अग्रेजियत को आधुनिकता और अंग्रेजवाद
को सर्वश्रेष्ठ जीवन प्रणाली माना जाता हो वहां वीरों की उपस्थिति होेने की आशा करना ही व्यर्थ है।
हम अंग्रेजों से असभ्रांत भारतीय की तरह
व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते। खासतौर से तब जब वह मानते हैं कि भारत में उनकी
भाषा, जीवन शैली तथा विचारधारा
का अनुकरण किया जा रहा हो। दूसरी बात यह भी है कि हमें जिन्होंने असभ्रांत से
सभ्रांत बनाया उनसे वीरता की आशा कैसी की जा सकती है। याद रहे भारत में अंग्र्रेजी अपनी वीरता से नहीं वरन् चालाकी से
राज्य करते रहे। फूट डालो राज्य करो वाली नीति उन्होंने यहां अपनायी। राज्य करने की यह नीति उन्होंने अपने देश में
न बनाये रखें यह संभव नहीं है। एक गौरवर्ण
युवती एक भारतीय बुजुर्ग को पीट रही है तो वहां खड़े अंग्रेज दर्शक अपने को प्रथक
रखते हैं तो यह उसका प्रमाण है कि वहां समाज भी
बंटा है। ऐसा नहीं है कि इंग्लैंड के उन दर्शकों ने कभी भारतीय सिख देखा नहीं होगा पर वह उन बुजुर्ग सिख
को पिटते देखकर अपने प्रथम समाज तथा अपने से अलग अनुभव कर खामोश रहे। एक गोरी मेम बुजुर्ग सिख को पीट रही है तो यह
नस्लवाद का मुद्दा मानकर हम सुविधाजनक स्थिति में हो सकते हैं पर अगर विचार
करेंगे तो अपनी अपनी स्वयं की नस्ल पर ही शर्म आने लगेगी जो दूसरों का अंधानुकरण
करने लगती है। इस घटना के बाद भी ब्रिटेन
और अमेरिका में जाकर अपना जीवन गुजारने का सपना देखने वाले कम नहीं होंगे। उनके लिये वहां की धरती आज भी स्वर्ग है।
सच यह है कि अंग्रेज न सभ्य है न सभ्रांत!
उनकी गोरी चमड़ी और चालाकियां उनके व्यक्तित्व को चमकदार बनाती है। वह अहिंसा की बात करते हैं पर सबसे अधिक
एतिहासिक हिंसक घटनायें उनके नाम हैं। भारत के विभाजन के बाद जो हिंसा हुई वह
अंग्रेजों के नाम ही है। इस धरती पर
परमाणु बम का उपयोग एक ही बार हुआ है और वह
भी ब्रिटेन के उस समय के सहयोगी राष्ट्र अमेरिका ने ही किया। कथित मानवाधिकारों की रक्षा के लिये यही दोनों राष्ट्र प्रतिबद्धता भी खूब
दिखाते हैं। दरअसल इन गोरों का एक ही लक्ष्य है अपना मतलब साधना। उनकी संस्कृति,
संस्कार और सभ्यता यही है और यही
उन्होंने पूरे विश्व को सिखाया है। यह कैसे संभव है कि वह अपनी असलियत भूल जायें।
ब्रिटेन के बारे में कहा जाता है कि वहां के लोग अपनी परंपराओं से प्रेम करते हैं, यही
स्वार्थ सिद्धि की परंपरा उनकी वास्तविक स्थिति है। ऐसे में नस्लवाद का आरोप लगाकर
इस घटना को हल्का नहीं किया जा सकता क्योंकि यहां पीटने और पिटने से अधिक
महत्वपूर्ण यह है कि सार्वजनिक स्थान पर भीड़ के सामने यह किया गया।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका