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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, September 24, 2017

जिंदगी के दर्द यूं ही बहने हैं, हमदर्दों के शब्द भी सहने हैं-दीपकबापूवाणी (Zindagi ke Dard youn hi Sahane Hain-DeepakBapuWani)

जिंदगी के दर्द यूं ही बहने हैं,
हमदर्दों के शब्द भी सहने हैं।
‘दीपकबापू’ अपने जंग स्वयं लड़ना है
जख्म हमेशा साथ रहने हैं।
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झूठे बोल से लोगों के दिल लूटे,
असली रूप देखा कांच जैसे टूटे।
‘दीपकबापू’ यकीन मार चुके
पर जिंदगी से उसका नाता न टूटे।।
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चलो बाहर टहल आयें,
सड़क पर दिल बहलायें।
‘दीपकबापू’ अंधेरे की प्रतीक्षा क्यों करें
पहले ही चिराग जलायें।
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अपने घर से जो लोग तंग हैं,
शोर करती भीड़ के संग हैं।
‘दीपकबापू’ बदहाल ज़माने में
रह गये दर्द के ही ढेर रंग हैं।
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हर स्वाद चखने का है चाव,
चाहत से महंगे हो गये भाव।
‘दीपकबापू’ दिल काबू में नहीं
चीज लूटने की जंग में झेलते घाव।।
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अपने कामयाबी पर बोलते रहें
अपनी गम और खुशी खोलते रहें।
‘दीपकबापू’ आओ बहरे हो जायें
अमीरों के बड़ेबोल कब तक सहें।
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Sunday, September 10, 2017

गुनाह पर फरिश्तों का पर्दा पड़ा है-दीपकबापूवाणी (Gunahon par Farishton ka parda pada hai-DeepakBapuWani)

लोकतंत्र के सहारे अपराधी पले हैं, कातिल चेहरे भलमानस अदाओं में ढले हैं।
‘दीपकबापू’ अपने ख्याली पुलाव पकाते, मगर गुस्से की आग में सब जले हैं।।
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गुनाह पर फरिश्तों का पर्दा पड़ा है, बदनाम होने पर भी नाम बड़ा है।
‘दीपकबापू’ जिम्मा लिया पहरेदारी का, वही चोरों की संगत में खड़ा है।।
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अपने सुख के साथ लोग नहीं चलते, पराये घर की रौशनी से सब जलते।
‘दीपकबापू’ खुशहाल वातावरण बनाते नहीं, ज़माने के दर्द पर सब मचलते।।
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चेहरे तो अब भी इंसानों जैसे लगते हैं, दिल हो गये बेरहम जज़्बात ठगते हैं।
‘दीपकबापू’ हर कदम पर बैठा हादसे का डर, पता नहीं कब सोते कब जगते हैं।
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पर्दे पर तर्क वितर्क का व्यापार चल रहा है, निरर्थक शब्द प्रचार में पल रहा है।
‘दीपकबापू’ कत्ल और आग के इंतजार में, हर चर्चाकार का दिल मचल रहा है।।
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लाश होकर बन जाते बड़े,
दर्द के सौदगार पास होते खड़े।
‘दीपकबापू’ दिल तो ठहरा फकीर
बेदिल उससे जज़्बात की जंग लड़े।।
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भीड़ में पहचान खोने से डरते हैं,
तन्हाई में पहचान के लिये मरते हैं।
‘दीपकबापू’ इधर नज़र तो आंखें उधर
अपनी सोच में चिंतायें भरते हैं।
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इंसानों में कातिल भी
जगह बनाये रहते हैं।
इसलिये तो फरिश्तों के
नाम जुबानों में बहते हैं।
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