वह साधक हमेशा ही योग साधना और ज्ञान के अध्ययन में संलग्न होकर प्रसन्न
रहता था।
एक दिन उसके पास एक मित्र आया और बोला-‘मेरे साथ गुरु के आश्रम चलना चाहते हो तो चलो! मैं कल
अपनी गाड़ी का टिकट आरक्षित कराने जा रहा हूं।’’
साधक ने कहा-‘नहीं,
तुम जाओ। मेरा मन तो अब अपनी साधना में
ही रम जाता है।’
मित्र ने कहा‘‘उंह,
तुम एक ही शहर में रहते हुए बोर नहीं
होते। अरे, तुम हमारे गुरु के वार्षिक कार्यक्रम में एक बार चलोगे
तो तुम्हें पता चल जायेगा कि वहां कितना आनंद मिलता है? एक जगह बैठकर तुम अपनी देह सड़ा क्यों रहे हो। इधर उधर
घूमकर तुम अपनी जिंदगी के कुछ मजे लो!’’
साधक हंसा और बोला-‘तुम्हें
क्या लगता है कि मैं अपनी जिंदगी बिना बजे के गुजार रहा हूं। परेशान तो तुम लगते
हो जो बाहर जाकर मजे लेने की इच्छा तुम्हें वहां ले जा रही है।’’
मित्र चला गया। कुछ दिन बाद फिर
वह अपने साधक मित्र के पास आया और अपनी यात्रा का आनंद बखान करने लगा-‘‘यार, बड़ा मजा आया! वहां बहुत सारी भीड़ थी। क्या जोरदार संगीतमय भजन सुनने को
मिले। गुरु जी ने अपने श्रीमुख से भजन भी
गाये और प्रवचन भी फरमाये। तुम्हें चलना चाहिये था! वहां बहुत आनंद मिला।’’
साधक ने पूछा-‘तुम्हारे
गुरु ने प्रवचनों में क्या कहा? वह
हमें भी सुनाओ। ज्ञान की बात सुनने में मेरी
बहुत रुचि है।’’
मित्र ने उत्तर दिया-‘‘प्रवचनों
में क्या होता है? वही बातें
जैसे कि मीठा बोलो, सभी के साथ
सद्व्यवहार करो और किसी दूसरे के धन पर वक्रदृष्टि मत डालो। हां, वहां जिस तरह मेला लगा उसमें बहुत आनंद आया।’’
साधक ने पूछा-‘तुम्हारी
यात्रा कैसी रही?
मित्र ने कहा-‘‘यही मत
पूछो। जाते समय तो टिकट आरक्षित था पर आते समय उसकी पुष्टि नहीं हो पायी। इसलिये तंगहाल में यात्रा की। अभी तक सारा शरीर टूट रहा है। मैं तो कल रात से दोपहर तक सोया। लगता नहीं है
कि अभी आराम मिला है!
साधक ने कहा-‘‘तुम वहां
मिला आनंद क्या यहां तक ला सके?
मित्र ने कहा-‘तुम तो
व्यंग्य करते हो! भला आनंद भी साथ लाने की वस्तु है?’’
साधक ने कहा-‘‘आनंद
वस्तु नहीं एक भाव है। अगर तुम वहां का आनंद यहां तक नहीं ला सके तो तुम्हारे गुरु
का सारा श्रम व्यर्थ गया। तुम मुझसे वहां चलने को कह रहे थे पर जहां का आनंद घर तक
नहीं लाया जा सके, उसे हम वहां चलकर क्या लेते? हमें तो दिल तक जाने वाला आनंद चाहिये। ऐसा आनंद जिसके मिलने के पश्चात् किसी असुविधा या
अभाव पर कुंठा का भाव पैदा न हो।’’
मित्र ने कहा-‘‘यार,
तुम तो अपनी बघारते हो! मुझे तुम्हारी
बात समझ में नहीं आयी।’’
मित्र चला गया और साधक अपने ध्यान की प्रक्रिया में लीन हो गया।
साधक ने सही कहा था। क्षणिक आनंद कभी हृदय में स्थान नहीं बना पाते। इसके विपरीत क्षणिक आनंद के बाद जब कोई कष्ट
सामने आता है तो मस्तिष्क में इतना तनाव पैदा होता है कि जितना खून आनंद से नहीं
बढ़ा होता उससे अधिक तो तनाव से घट जाता है। दूसरी बात यह कि हमारी इंद्रियां बाहर
से प्राप्त आनंद का विसर्जन भी जल्दी कर देती हैं। यह उनकी प्रकृत्ति और निवृत्ति
का सिद्धांत है। अंदर पैदा हुआ आनंद कभी सहजता से नष्ट नहीं होता। यह आनंद ध्यान,
मंत्रजाप तथा योगासन से प्राप्त किया जा
सकता है। दूसरा कोई इसका मार्ग कम से कम हमें अपने अनुभव के आधार पर तो नहीं लगता
जो कि किसी को स्थाई आनंद दिला सके।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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