नोटबंदी के बाद ग्वालियर से बाहर हमारी पहली यात्रा वृंदावन की हुई। रेल से लेकर घर ता आने के बीच कहीं लगा नहीं कि देश में मुद्रा की कमी चल रही है। सात दिन तक भीड़ के बीच नोटबंदी की चर्चा तो सुनी पर किसी ने परेशानी बयान नहीं की। वापसी में ऑटो वाला तो प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा गुणगान कर रहा था जैसे मानो उसे पंख लग गये हों। सबसे बड़ी बात जो हमें लगी कि अमीरों ने अपने प्रदर्शन से जो कुंठा सामान्यजनों में पैदा की वह अब समाप्त हो गयी है-हम देश को मनोवैज्ञानिक लाभ होने की बात पहले भी लिख चुके हैं। सामान्यजनों की रुचि इस बात में नहीं है कि बैंकों में कितना कालाधन आया बल्कि वह तो धनिक वर्ग के वैभव का मूल्य पतन देखकर खुश हो रहा है।
नोटबंदी ने प्रधानमंत्री मोदी को एक तरह से जननायक बना दिया है। अनेक बड़े अर्थशास्त्री भले आंकड़ों के खेल दिखाकर आलोचना में कुछ भी कहें पर हम जैसे जमीन के अर्थशास्त्री सामान्यजनों के मन के भाव पर दृष्टिपात करते हैं। अभी सरकार कह रही है कि फरवरी के अंत तक स्थिति सामान्य होगी। हम जैसे लोग चाहते हैं कि यह स्थिति यानि नकदी मुद्रा की सीमा अगले वर्ष तक बनी रहे तो मजा आ जाये। बताया जाता है कि इस समय साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में है और हमारे अनुसार यह पर्याप्त है। अब नये नोट छापने की बजाय बैंकों से वर्तमान उपलब्ध मुद्रा को ही घुमाने फिराने को निर्देश दिया जाये तो देश के आर्थिक, सामाजिक और मानसिक स्थिति के लिये सबसे बेहतर रहेगा।
बैंक तथा एटीएम से भीड़ नदारद है। बड़े भुगतान एटीएम से खातों में किये जा सकते हैं। ऐसे में वह कौन लोग हैं जो यह चाहते हैं कि पूरी तरह मुद्रा बाज़ार में आये और नकद भुगतान की सीमा समाप्त हो? उत्तर हमने खोज निकाला। अनेक लेनदेन दो नंबर मेें किये जाते हैं ताकि राजस्व भुगतान से बचा जा सके। खासतौर से भवन निर्माण व्यवसाय तो करचोरी का महाकुंुभ बन गया है। इसका पता हमें तब चला जब हमारे एक परिचित ने एक निर्मित भवन खरीदने की इच्छा जताई।
नाम तो पता नहीं पर वह किसी मध्यस्थ के पास हमें ले गये। हमारे परिचित का पूरा धन एक नंबर का है। दलाल से उन्होंने बात की तो उसने साफ कहा कि इस समय तो भवनों की कीमत गिरी हुई है पर बेचने वाले भी तैयार नहीं है। हमारे मित्र ने अपनी त्वरित इच्छा जताई तो उन्होंने एक 26 लाख की कीमत वाले भवन की कीमत 23 लाख बताई। जब उनसे रजिस्ट्री का मूल्य पूछा गया तो वह बोले इसका आधा या कम ही समझ लो। हमारे मित्र ने बताया कि वह तो पूरा पैसा चैक से करेंगे। तब उसने साफ मना कर दिया हमारे साथी ने केवल चैक के भुगतान की बात दोहराई। हमारे मित्र ने बताया कि वह अन्य मध्यस्थों से भी ऐसी ही बात कर चुके हैं।
हमारा माथा ठनका। भवन की जो कीमत सरकारें रजिस्ट्री के लिये तय करती हैं उससे अधिक निर्माता वसूल करता है। रजिस्ट्री की कीमत वह चैक से ले सकता है पर उससे आगे वह खुलकर कालाधन मांग रहा है। यहां से हमारा चिंत्तन भी प्रारंभ हुआ। आठ नवंबर से पूर्व देश में कुल 17 लाख करोड़ रुपये की मुद्रा प्रचलन में थी पर यह एक माध्यम थी। अगर देश में समस्त नागरिकों के खातों में जमा रकम का अनुमान करें तो वह करोड़ करोड़ गुना भी हो सकती है पर सभी एक दिन ही एक समय में पूरी रकम नहीं निकालने जाते। कोई जमा करता तो कोई दूसरा निकालता है। इस तरक मुद्रा चक्र घूमता है तो पता नहीं चलता। आठ नवंबर से नकदी निकालने की सीमा ने सारा गणित बिगाड़ दिया। अनेक लोगों ने भूमि, भवन, सोना तथा शेयर में अपना पैसा लगा रखा है और आठ नवंबर से पूर्व वह उनके मूल्य पर इतराते थे। विमुद्रीकरण ने उनकी हवा निकाल दी है। पहले जो पांच या दस करोड़ की संपत्ति इतराता था वह अब उसका वर्तमान मूल्य बतलाते हुए हकलाता है। बताये तो तब जब बाज़ार में कोई खरीदने की चाहत वाला इंसान मिल जाये।
उस दिन एक टीवी चैनल पर भवन निर्माता मोदी जी के भाषण पर चर्चा करते हुए कह रहा था कि उन्होंने सब बताया पर यह नहीं स्पष्ट किया कि नकदी निकालने की सीमा कब खत्म होगी? हमने मजदूर निकाल दिये क्योंकि उनको देने के लिये पैसा नहीं मिल पा रहा। फिर हमारा उद्धार तब होगा जब नये प्रोजेक्ट मिलेंगें।
वह सरासर झूठ बोल रहा था। भवन निर्माता इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नयी मुद्रा कब कालेधन का रूप ले ताकि उन्हें सरकारी कीमत से ज्यादा मूल्य मिले। भवन निर्माण व्यवसायी तथा मध्यस्थ छह महीने तक सामान्य स्थिति अर्थात नयी मुद्रा के कालेधन में परिवर्तित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मजदूरों का नाम तो वह ऐसे ही ले रहे हैं जैसे समाज सेवक उनका मत पाने के लिये करते हैं।
हमारे अनुसार प्रधानमंत्री श्रीमोदी को नोटबंदी के बाद की प्रक्रियाओं पर भी सतत नज़र रखना चाहिये ताकि कहीं अधिकारीगण इन कालेधनिकों के दबाव में उतनी मुद्रा न जारी कर दें जितनी पहले थी। बाज़ार में दिख रही छटपटाहट उन कालेधन वालों की है जो कि राजस्व चोरी कर अपनी वैभव खड़ा करते हैं। हम जैसे जमीनी अर्थशास्त्री तो अब यह अनुभव करने लगे हैं कि देश ने 70 सालों में कथित विकास कालेधन का ही था। सरकार के राजस्व में भारी बढ़ोतरी उस अनुपात में नहीं देखी गयी जितना आर्थिक विकास होने का दावा किया जाता है।
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