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Sunday, February 22, 2009

इसलिए ताली बजाई-हास्य व्यंग्य कविताएँ

नारी की आज़ादी विषय पर
उन्होने महफ़िल सजाई
दर्शक दीर्घा में पुरुषों के लिए भी
कुर्सी सजाई
पूछने पर बोलीं
"नारी और पुरुष को
प्राकृतिक रूप से अलग करना कठिन है
ऐसे ही जैसे समय का आधार रात और दिन है
बहस करने का फैशन हो गया है
नहीं करेंगे तो लगेगा महिलाओं का
दिमाग़ कहीं सो गया है
महिलाएँ तो बहस करेंगी
पर तालियों के लिए तरसेंगी
पुरुष इस काम को करेंगे खुशी से
इसलिए यह कुर्सियाँ सजाईं"
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नारियों के विषय पर हुए सम्मेलन से
लौटते हुए एक दर्शक ने दूसरे से कहा
"यार अपने को तो दर्शक दीर्घा में बैठाकर
महिलाओं ने खूब भाषण सुनाए
हमारी आलोचना में खूब बुरे विचार बताए
मेरे तो कोई बात समझ में नहीं आई
फिर भी हमेशा ताली बजाई"

दूसरे ने कहा
"मैं तो अपने सुनने की मशीन
घर पर ही छोड़ आया
जब तुमने ठोके हाथ
तब मैने भी ताली बजाई
समझने समझाने की बात भूल जाओ
हम तो मेकअप और चैहरे देखने आए थे
अपनी पॉल न खुले
इसलिए ही मैने भी ताली बजाई

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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3 comments:

Ivo Serenthà said...

Greetings from Italy,good luck

Marlow

रवीन्द्र प्रभात said...

आपको व परिवार को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं .

Anonymous said...
This comment has been removed by a blog administrator.

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