गर्मी में दोपहर की तपिश
उसे और बढ़ा देती है।
वर्षा की बूंदों के इंतजार में
में पथरा गयी हैं आंखें
जल रहा है बदन
कोई सागर ढूंढता हूं
जिसकी ठंडक तसल्ली दे सके
पर नउम्मीदी नरक सजा देती है।
उठा रहा हूं इसलिये अल्फाजों की लहरें
शायद बन जाये शायरी का कोई सागर
जिससे रौशन हो दिल
यही उम्मीद आसरा बढ़ा देती है।
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यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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