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Thursday, July 2, 2009

हिंदी भाषा के वीभत्स शब्दों पर भरोसा-व्यंग्य आलेख (hasya vyangya in hindi)

समलैंगिकों को कानूनी अधिकार क्या मिला इस देश में एक ऐसी बहस चली पड़ी है जिसका आदि या अंत फिलहाल नजर नहीं आता। यहां हम समलैंगिकों के अधिकारों या उनकी मनस्थिति पर विचार न कर यही देखें कि इस पर तर्क क्या दिया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आज थोड़ा हिंदी के उस वीभत्स रूप पर जरा गौर करें जो समलैंगिकों को डरा सकता है। यह डर है गालियों का। अधिकतर शिक्षित लोग गालियां न देते हैं न सुनने का उनमें सामथ्र्य होता है। कुछ लोग देते हैं पर सुनने की हिम्मत नहीं करते।
समलैंगिक एक आकर्षक शब्द लगता है पर यह केवल बड़े शहरों में रहने वाले मनोविकारी लोगों को ही सुहा सकता है। छोटे शहरों और गांवों में अगर समलैंगिक अगर पहुंच जाये तो उसे जो शब्द अपने लिये सुनने को मिलेगा उसे वह समझेगा नहीं और सच बात तो यह है कि उस शब्द का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि आशय ही समलैंगिकता के अधिक निकट है। समलैंगिक संबंध वही बनायेगा जिसने उस शब्द को कभी सुना नहीं होगा।
जब हिंदी के वीभत्य रूप का विचार आया तो यह प्रश्न भी उठा कि क्या जितने भयानक शब्द हिंदी-जिसे विश्व की सर्वाधिक मधुर और वैज्ञानिक भाषा भी अब माना जाने लगा है-में होते हैं उतने किसी अन्य भाषा में भी शायद ही होते होंगे। कम से कम अंग्रेजी में तो नहीं होते होंगे क्योंकि अपने यहां अंग्रेजी में बोलने वाले हेकड़ हमेशा ही गालियों के लिये हिंदी का जिस सहारा लेते हैं उससे तो यही लगता है।
बात से बात यूं निकली कि एक विद्वान ने कहा कि समलैंगिक संबंध बीमारी नहीं है-यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है। अगर यह सच है तो पश्चिम और पूर्व की संस्कृति में जमीन आसमान का अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उससे अधिक तो अंतर तो मानवीय सोच में है। अगर इस तरह की सोच ही सभ्यता का प्रतीक है तो हम भारतीय असभ्य भले मगर विश्व के अध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले अपने भारत देश में विश्व संगठन की यह राय कतई स्वीकारी नहीं जा सकती।
अगर हमारे देश के विद्वानों का यह मानना है कि जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन बीमारी नहीं मानता तो उसे हम भी नहीं मानेंगे तो कुछ कहना व्यर्थ है। इस देश के विद्वानों और प्रचार माध्यमों का कहना ही क्या? स्वाईन फ्लू के देश में कुल सौ मरीज भी नहीं है पर आप उसके बारे में पढ़ेंगे और सुनेंगे तो लगेगा कि जैसे पूरा देश ही स्वाईन फ्लू की चपेट में हैं जबकि उससे हजार गुना लोग तो टीवी, पीलिया आंत्रशोध और मलेरिया से पीड़ित हैं उससे बचाव के तरीकों का प्रचार अधिक नहीं होता क्योंकि उसकी दवायें तो ऐसे ही बिक जाती हैं पर स्वाइन फ्लू को एक विज्ञापन की जरूरत है जो जागरुकता पैदा करने के नाम पर ही चलता है। हम तो आज तक यही नहीं समझ पाये कि हेपेटाइटिस और पीलिया में अंतर क्या है? आखिर हैपेटाइटिस के टीके लगते हैं पर वह पीलिया से किस तरह अलग हमें पता नहीं।
बात हम करें समलैंगिक संबंधों की तो उसके लिये जो हिंदी में शब्द है वह इतना वीभत्स है कि हमारा बूता तो यहां लिखने का नहीं हैं। अक्सर एक पुरुष जब दूसरे से नाराज होता है तो वही शब्द कहता है और फिर झगड़ा अधिक बढ़ जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन को उस गाली के बारे में नहीं मालुम होगा! अंग्रेजी में गिटिर पिटिर करने वालों को नहीं पता कि मंकी (बंदर) शब्द उनके लिये जिस तरह नस्लवाद का प्रतीक है वैसे ही पुरुष समलैंगिक संबंधों के लिये ऐसा शब्द हिंदी में है जिस पर कोई भला लेखक तो लिख ही नहीं सकता।
अंतर्जाल पर एक लेखक ने उस भयानक लगने वाले शब्द को अपने ब्लाग पर लिखा था। हिंदी के ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरम पर जब हमने उसे पढ़ा तो पूरा दिन उस फोरम का रुख नहीं किया। इतना ही नहीं उस फोरम ने बाद में उस लेखक का ब्लाग का लिंक ही अपने यहां से हटा लिया। उससे मन इतना खराब हुआ कि दो आलेख और तीन व्यंग्य कवितायें जब तक नहीं लिख डाली तब चैन नहीं आया। नहीं लिखा तो वह शब्द।
हिंदी वार्तालाप करने वाले सामान्य लोगों में बहुत से लोग गालियों का उपयोग करते हैं। हां, अब शिक्षित होते जाने के साथ ही गालियों का आद्यक्षर कर लिया है जैसे कि अंग्रेजी का संक्षिप्त नाम लिखते हैं। सभ्य लोग इन्ही आद्यक्षरों के सहारे काम चलाकर अपने गुस्से का इजहार कर लेते हैं। इसकी एक दिलचस्प घटना याद आ रही है। आस्ट्रेलिया के साथ एक मैच में एक भारतीय खिलाड़ी ने आस्ट्रेलियो के खिलाड़ी को मंकी (बंदर) कह डाला। इस पर भारी हायतौबा मची। भारतीय खिलाड़ी पर प्रतिबंध भी लगा। आरोप लगाया कि यह तो सरासर नस्लवाद है। भारत में इस पर जमकर विरोध हुआ। कहा गया कि ‘भारतीय कभी नस्लवादी नहीं होते।’

सच कहा होगा। आप तो जानते हैं कि चाय के ठेलों, विद्वानों की बैठकों और बाजारों में ऐसे घटनाओं पर खूब चर्चा होती है। एक सज्जन ने कहा-‘हम भारतीय बहुत सज्जन हैं। विदेश में जाकर ऐसी हरकतें करें यह संभव नहीं है। फिर गुस्से में बंदर कहें यह तो संभव ही नहीं है। बंदर तो यहां प्यार से कहा जाता है। हां, यह संभव है कि भारतीय सभ्य खिलाड़ी ने क्रोध में आकर उस गाली का आद्यक्षर प्रयोग किया हो जिसका स्वर मंकी (बंदर) के रूप में सुनाई दिया हो।’
पता नहीं उस आदमी का यह कहना सही था या गलत पर जो लोग उसे सुन रहे थे उनका मानना था कि ऐसा भी हो सकता है।
जब हमने एक विद्वान सज्जन द्वारा समलैंगिकता को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उसे बीमारी न मानने की बात सुनी तब लगा कि अब हमारे देश के लोग उस हर चीज और विचार पर फिर से दृष्टिपात करें जो उन्होंने अपनाया है। एक भयानक मनोविकार अगर बीमारी नहीं है तो फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन किस आधार पर यह कहता है कि ‘इस दुनियां में चालीस फीसदी से अधिक लोग मनोविकारों का शिकार है पर उनको पता नहीं है।’
अगर वह इसे मानसिक रोग नहीं मानता तो उसे जाकर बतायें कि हिंदी में इसके लिये विकट शब्द है जो बहुत भड़काने वाला है। यह शब्द उस मंकी शब्द से अधिक विस्फोटक है जिसे वह लोग नस्लवाद का प्रतीक मानते हैं।
वैसे जब चालीस फीसदी मनोरोगियों के होने की बात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कही थी तब हमने सोचा कि वह संख्या कम ही बता रहा है क्योंकि इंसान जिस तरह की हरकतें कर रहे हैं उससे तो यह संख्या पचास से अधिक ही लगती है और यह वह लोग हैं जिनके पास धन, प्रतिष्ठा और पद की ताकत है, वह मदांध हो रहा है। किसी को कुचलकर वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है। बाकी पचास फीसदी तो गरीब हैं जिनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो ऐसे मनोविकार पाल सकें।
अगर हमारी बात पर यकीन न हो तो इस विषय पर टीवी पर चर्चायें सुन लो। अखबार पढ़ लेना। कुछ लोग समलैंगिक अधिकार मिलने पर नाच रहे हैं तो कुछ विरोध में धर्म और संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं। जो नाच रहे हैं उनके मनोरोगी होने पर हम क्या कहें? मगर जो विरोध कर रहे हैं वह मनोरोगी हैं या भावनाओं के व्यापारी यह भी देखने वाली बात है।
कह रहे हैं कि
1.इससे समाज भ्रष्ट हो जायेगा।
2.क्या इस देश में माता पिता चाहेंगे कि उनके बच्चे समलैंगिक बन जायें।
3.यह तो पूरी प्रकृति के लिये खतरा है
उनके सारे तर्क हास्यास्पद हैं। हमें तो अपनी मातृभाषा के हिंदी शब्द कोष में अदृश्य रूप से मौजूद वीभत्स शब्दों के साथ ही अपने देश के युवकों और युवतियों में अध्यात्मिकता की तरफ बढ़ते रुझान पर पूरा भरोसा है। बड़े शहरों का पता नहीं छोटे शहरों तथा गांवों में रहने वाले युवक भी उन शब्दों का उपयोग करते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि समलैंगिक शब्द के लिये कौनसा शब्द है? वैसे भी हमारे महापुरुष कहते हैं कि असली भारती गांवों में बसता है। समलैंगिकता भी वैसा ही रोग है जैसा स्वाईन फ्लू-दिखेगा कम पर प्रचार माध्यमों में चर्चित अधिक होगा। चंद समलैंगिक लोगों की वजह से देश की युवा पीढ़ी को अज्ञानी मान लेना हमें स्वीकार्य नहीं है। इस देश के युवक युवतियां पश्चिमी देशों से अधिक चेतनशील हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वहां पहुंचकर अपनी योग्यता का लोहा नहीं मनवाते। यह योग्यता मनोविकारी नहीं अर्जित कर सकते।
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