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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, October 27, 2011

सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा पर कितना रोयें-हिन्दी लेख (government hospital and comman public-hindi article)

         कलकत्ता के एक अस्पताल में 48 घंटे में 11 से 14 बच्चों की मौत का समाचार टीवी चैनलों पर देखने और सुनने को मिला। ऐसा समाचार वहां इसी वर्ष जून में भी मिला था। उस समय प्रचार माध्यमों की व्यग्रता देखकर अस्पताल में सुधार की बात कही गयी। अब प्रचार माध्यम स्वयं कह रहे हैं कि सुधार के नाम पर वहां शून्य है और मौतों का सिलसिला जारी है।
          भारत में शिशु दर की अधिकता ही बढ़ती जनसंख्या का कारण मानी जाती है क्योंकि जन्मदाता अपने शिशुओं के जीवन को लेकर आश्वस्त नहीं होते और बुढ़ापे में आसरे की खातिर अधिक बच्चों को जन्म देते हैं। हालांकि बढ़ती जनसंख्या में अशिक्षित नागरिकों के साथ ही देश के अविकसित होना भी एक कारण माना जाता हैं। देखा यह गया है कि विकसित देश में जनंसख्या कम होती है तो वही धनाढ्य नागरिक भी अधिक बच्चों के जनक नहीं होते। बहरहाल मौतों पर मचे बवाल पर चिकित्सकों का कहना है कि पांच या छह बच्चे कलकत्ता के उस अस्पताल में बड़ी बात नहीं है। उनका यह भी स्पष्टीकरण है कि बच्चे वहां इतनी खराब हालत में लाये जाते हैं कि उनमें से सभी को बचाना मुमकिन नहीं रहता। वहीं मृत शिशुओं के परिवार उन पर चिकित्सा में लापरवाही का आरोप लगाते हैं। वैसे हमारे देश में पं बंगाल प्रदेश तथा पड़ौसी देश बंग्लादेश अधिक आबादी और गरीबी के कारण जाने जाते हैं तब कलकत्ता जैसे महानगर के अस्पताल में ऐसी घटना होना कोई बड़ी बात नहीं लगती पर चिंताजनक तो है।
            ईमानदारी की बात यह है कि हमें दोनों की बातों से विरोध नहीं है। सीधी बात कहें तो दोनों ही अपने तर्क पर सही हो सकते हैं पर मूल बात यह है कि शिशुओं की मौत हो रही है और इसके लिये हम समाज को इस अपराध ने बरी नहीं कर सकते। एक बात तो यह है कि बढ़ते भौतिकतावाद ने शिशुओं की रक्षा के उत्तरदायित्वों से लोगों को विमुख कर दिया है। माता पिता हों या चिकित्सक दोनों ही एक तरह से ऐसी मौतों के लिये जिम्मेदार माने जा सकते हैं। हम देखते हैं कि बीमारी की शुरुआत में लोग उसे यह कहकर टाल देते हैं कि एक दो दिन में सही हो जायेगी। यहां तक घरेलू परंपरागत उपचार तक से लोग परहेज करते हैं। यहां हम यह भी बता दें कि हमारा यह अनुभव रहा है कि शुरुआती दौर में अगर घरेलू उपाय किये जायें तो खांसी, जुकान, सिरदर्द तथा अन्य बीमारियों से मुक्ति पाई जा सकती है। यह अलग बात है कि कुछ लोग झाड़ फूंक में वक्त खराब करते हैं और घरेलू उपचार में हिचकते हैं। उसके बाद जब बीमारी बढ़ती है तो फिर नीम हकीमों के चक्कर पड़ जाते हैं। जब मामला बिगड़ता है तब सरकारी अस्पताल की तरफ जाते हैं। यह भी देखा जाता है कि जब निजी चिकित्सालयों के स्वामियों को लगता है कि मरीज का अब आगे चलना मुश्किल है तब उसे सरकारी अस्पताल की तरफ रवाना करते हैं।
         सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा पर लिखना अब समय बेकार करना है। स्थिति यह है कि अगर जेब में बहुत पैसा हो तो बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो सरकारी अस्पताल का रुख करेंगे। स्थिति यह है कि जिनके पास कम पैसा है वह तो संकट में पड़ जाते हैं कि सरकारी अस्पताल जायें या निजी नर्सिंग होम की शरण लें। अनेक लोगों को तो सरकारी अस्पताल में इलाज कराने पर उलाहना भी झेलना पड़ता है। एक समय था जब सरकारी अस्पतालों में अच्छी व्यवस्था थी और वहां उपचार कराने पर विश्वास होता था कि ठीक हो जायेंगे। प्रसंगवश हमें याद आया कि उस समय विद्यालय भी सरकारी अधिक बेहतर माने जाते थे। कथित उदारीकरण के चलते सारा स्वरूप बदल गया है। कहने को हमारे यहां लोकतांत्रिक प्रणाली है पर जिस तरह जनउपयोगी सेवाओं में बदहाली के चलते उनका निजीकरण हुआ है उससे तो यही लगता है कि व्यवस्था का मुख आमजन के कल्याण से अधिक जगह धनपतियों की तरफ खुला है। जनकल्याण के दावे खोखले लगने लगे हैं क्योंकि अब रोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जीवन की अन्य दिनचर्याओं के लिये लोग अब राज्य से अधिक धनपतियों पर निर्भर हो गये हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर जनकल्याण के दावे करने वाले किस तरह उस पर अमल कर सकते हैं क्योंकि यहां तो आमजन का दैनिक सरोकार अब निजी क्षेत्र पर निर्भर हो गया है।
          आखिरी बात यह है कि अक्सर प्रचार माध्यम दावा करते हैं कि हमारी खबर के परिणाम की वजह से यह कार्यवाही हुई या वह काम हुआ। यह दावा वहीं सही सिद्ध होता है जहां निजत्व का संबंध होता है। जैसे कहीं घोटाला हुआ या हत्या हुई या कहीं चोरी हुई उसका राजफाश करने पर अपराधी तो पकड़ा जाता है पर जहां व्यवस्था का कोई दोष सामने उजागर होने पर भी उसमें सुधार नहीं होता। जब कलकत्ता के अस्पताल की खबर पहले आयी थी तब भी व्यवस्था नहीं सुधरी। इसका मतलब सीधा है कि व्यवस्था में सुधार का दावा प्रचार माध्यम नहीं कर सकते। शक्तिशाली और संगठित लोग या समूह उनकी खबरों से नहीं डरते। बहरहाल कलकत्ता का यह अस्पताल अगर इसी तरह चलता रहा तो आगे प्रचार माध्यमों के लिये इसी तरह की सनसनी खबरों में बना रहेगा।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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