अमेरिका की एक फिल्म की चर्चा पढ़ने का मिली
जिसमें एक पात्र से कहलाया गया है कि ‘‘हताश अमेरिका को बचाने के लिये एक
हीरो की जरूरत है।’’ यह कोई बड़ी बात नहीं है पर इसे एक संदर्भ मानकर हम
आसपास देखें तो पायेंगे कि धर्म, इतिहास, साहित्य तथा राजनीति से जुड़ी अनेक
पुस्तकों में अनेक लोगों ने नायक या हीरो की अपनी स्मृतियां समाज में
स्थापित की है जिनके दुबारा प्रकट होने की कामना लोग आज भी करते हैं। सभी
धर्म, समाज, जाति तथा भाषाई समूहों के अपने अपने हीरो हैं। जिनकी गाथायें
गायी जाती हैं। हमारे देश में तो भगवान या उनके अवतार का दर्जा तक दिया
जाता है जिस पर विश्व की बात तो छोड़िये अपने ही देश अनेक विचाकर हंसते
हैं-यह अलग बात है कि विदेशी विचाराधाराओं से प्रभावित यह विद्वान विदेशी
नायकों पर ऐसी टिप्पणियां नहीं करते जितना देशी नायकों पर करते हैं।
हम इस पर बहस नहीं कर पूरे विश्व के मानव समुदाय की उस कमजोरी की तरफ इशारा करना चाहते हैं जिसमें समस्याओं को परेशानियों का जनक वह स्वयं है पर उनका हल वह आसमानी देवताओं से चाहता है।
आसमानी देवता कभी धरती पर प्रकट नहीं हो सकते यह दूसरा सत्य है। सासंरिक विषयों में ऊंची नीच होता रहता है। जिसने संपदा और प्रतिष्ठा पाई अभावों में जी रहे लोग उन पर भगवान कृपा मानते हैं। उनकी दृष्टि में आसमान में बैठा अदृश्य शक्तिमान ही संसार की गतिविधियों का संचालक है। वही कर्म प्रेरणा है तो परिणाम भी वही निर्धारित करता है। अपनी देह में स्थित दो हाथ, दो पांव, दो कान और दो आंख तथा दो नाक (एक योग साधक के रूप में हमें दो नाक का ही अनुभव होता है) लेकर इस संसार में विचर रहा आदमी अपने मन में अनेक सपने पालता है पर बुद्धि की शक्ति से बेखबर रहता है। वह स्वयं कर्ता है पर भोक्ता की तरह इस संसार में रहना चाहता है। रोटी नहीं है तो उसकी तलाश और वह पूरी हुई तो मनोरंजन की चाहत उसके मन में उट खड़ी होती है।
मनुष्य की बुद्धि से अधिक मन पर निर्भर रहता है। यहीं से चालाक लोग अपने हितों की पूर्ति का मार्ग बनाते हैं। यही चालाक लोग धन, संपदा के संचय के साथ ही समाज के शिखर पर प्रतिष्ठत हो जाते है। भगवान की कृपा का प्रसाद उनको मिला यह देखकर आम आदमी भी उनका भक्त बन जाता है। यही शिखर पुरुष अपना समाज में तानाबाना ऐसे बुनते हैं कि आम आदमी हमेशा ही शोषण, तनाव और रोजीरोटी के संघर्ष का बोझा उठाते हुए लिये महल बनाता है। जब वह तंग होता है तो एकाध बार उस हाथ फेरकर शाबादी भी यही शिखर पुरुष देवत्व की अनुभूति कराते हैं। सामान्य तौर से आम आदमी इन शिखर पुरुषों को दिखावे का सम्मान देता है पर मन में मानता है कि इन पर भगवान की कृपा हुई है। इन्हीं शिखर पुरुषों के स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अनेक लोग भी शिखर प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे सफल लोग इन शिखर पुरुषों को नायक की तरह प्रचारित करते हैं। ऐसे में आम आदमी भी अपनी समस्याओं के लिये नायक की प्रतीक्षा करता है। हम कुछ नहीं कर सकते कोई नायक आकर हमारी समस्या का हाल करेगा यह सोचकर लोग अपना दिल बहलाते हैं।
इधर फिल्मों और टीवी धारावाहिकों ने इस कदर लोगों की बुद्धि का हरण किया है कि कल्पित कहानियों पर बनी मनोरंजन सामग्री को ही संसार की हकीकत माना जाने लगा है। इनमें काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को संसार का नायकत्व मिल जाता है। यहां किसी को रोटी मिलती है तो नहीं भी मिलती है। किसी के पास रोजगार है तो कोई बेरोजगारी में ही सड़क नाप रहा है। कामयाबी का पैमाना भगवान की कृपा है तो कामयाब और प्रतिष्ठित आदमी देवत्व का दर्जा पा लेता है। लोकप्रियता का पैमाना आदमी का व्यवहार नहीं बल्कि उसके साथ खड़ी भीड़ है। भीड़ में खड़ा आदमी नायक और अकेला खड़ा आदमी मूर्ख है-यह भाव आम हो गया है।
इधर एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी ‘क्या कूल हैं हम,’ उसके क्रम में ही दूसरी फिल्म आ गयी है‘क्या सुपर कूल हैं हम’। इन फिल्मों के प्रदर्शन में अधिक अंतराल नहीं है पर हमने पहले के समाज से कही वर्तमान में अधिक लोगों को निष्क्रियता की स्थिति में देख रहे हैं। पहले तो लोग कूल या ठंडे थे अब तो सुपर कूल या एकदम ठंडे हो गये हैं। पहले तो यह था कि सभी नहीं तो कुछ लोग यह सोचते थे कि चलो समाज के लिये कुछ कर लें पर आजकल तो समाज में यह मान लिया गया है कि केवल शिखर पुरुष ही यह काम करेंगे। वाकई सुपर कूल हैं हम।
हम इस पर बहस नहीं कर पूरे विश्व के मानव समुदाय की उस कमजोरी की तरफ इशारा करना चाहते हैं जिसमें समस्याओं को परेशानियों का जनक वह स्वयं है पर उनका हल वह आसमानी देवताओं से चाहता है।
आसमानी देवता कभी धरती पर प्रकट नहीं हो सकते यह दूसरा सत्य है। सासंरिक विषयों में ऊंची नीच होता रहता है। जिसने संपदा और प्रतिष्ठा पाई अभावों में जी रहे लोग उन पर भगवान कृपा मानते हैं। उनकी दृष्टि में आसमान में बैठा अदृश्य शक्तिमान ही संसार की गतिविधियों का संचालक है। वही कर्म प्रेरणा है तो परिणाम भी वही निर्धारित करता है। अपनी देह में स्थित दो हाथ, दो पांव, दो कान और दो आंख तथा दो नाक (एक योग साधक के रूप में हमें दो नाक का ही अनुभव होता है) लेकर इस संसार में विचर रहा आदमी अपने मन में अनेक सपने पालता है पर बुद्धि की शक्ति से बेखबर रहता है। वह स्वयं कर्ता है पर भोक्ता की तरह इस संसार में रहना चाहता है। रोटी नहीं है तो उसकी तलाश और वह पूरी हुई तो मनोरंजन की चाहत उसके मन में उट खड़ी होती है।
मनुष्य की बुद्धि से अधिक मन पर निर्भर रहता है। यहीं से चालाक लोग अपने हितों की पूर्ति का मार्ग बनाते हैं। यही चालाक लोग धन, संपदा के संचय के साथ ही समाज के शिखर पर प्रतिष्ठत हो जाते है। भगवान की कृपा का प्रसाद उनको मिला यह देखकर आम आदमी भी उनका भक्त बन जाता है। यही शिखर पुरुष अपना समाज में तानाबाना ऐसे बुनते हैं कि आम आदमी हमेशा ही शोषण, तनाव और रोजीरोटी के संघर्ष का बोझा उठाते हुए लिये महल बनाता है। जब वह तंग होता है तो एकाध बार उस हाथ फेरकर शाबादी भी यही शिखर पुरुष देवत्व की अनुभूति कराते हैं। सामान्य तौर से आम आदमी इन शिखर पुरुषों को दिखावे का सम्मान देता है पर मन में मानता है कि इन पर भगवान की कृपा हुई है। इन्हीं शिखर पुरुषों के स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अनेक लोग भी शिखर प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे सफल लोग इन शिखर पुरुषों को नायक की तरह प्रचारित करते हैं। ऐसे में आम आदमी भी अपनी समस्याओं के लिये नायक की प्रतीक्षा करता है। हम कुछ नहीं कर सकते कोई नायक आकर हमारी समस्या का हाल करेगा यह सोचकर लोग अपना दिल बहलाते हैं।
इधर फिल्मों और टीवी धारावाहिकों ने इस कदर लोगों की बुद्धि का हरण किया है कि कल्पित कहानियों पर बनी मनोरंजन सामग्री को ही संसार की हकीकत माना जाने लगा है। इनमें काम करने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को संसार का नायकत्व मिल जाता है। यहां किसी को रोटी मिलती है तो नहीं भी मिलती है। किसी के पास रोजगार है तो कोई बेरोजगारी में ही सड़क नाप रहा है। कामयाबी का पैमाना भगवान की कृपा है तो कामयाब और प्रतिष्ठित आदमी देवत्व का दर्जा पा लेता है। लोकप्रियता का पैमाना आदमी का व्यवहार नहीं बल्कि उसके साथ खड़ी भीड़ है। भीड़ में खड़ा आदमी नायक और अकेला खड़ा आदमी मूर्ख है-यह भाव आम हो गया है।
इधर एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी ‘क्या कूल हैं हम,’ उसके क्रम में ही दूसरी फिल्म आ गयी है‘क्या सुपर कूल हैं हम’। इन फिल्मों के प्रदर्शन में अधिक अंतराल नहीं है पर हमने पहले के समाज से कही वर्तमान में अधिक लोगों को निष्क्रियता की स्थिति में देख रहे हैं। पहले तो लोग कूल या ठंडे थे अब तो सुपर कूल या एकदम ठंडे हो गये हैं। पहले तो यह था कि सभी नहीं तो कुछ लोग यह सोचते थे कि चलो समाज के लिये कुछ कर लें पर आजकल तो समाज में यह मान लिया गया है कि केवल शिखर पुरुष ही यह काम करेंगे। वाकई सुपर कूल हैं हम।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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