भारत में ओलम्पिक की इज्जत लगभग खत्म ही हो जायेगी। अभी तक कोई खिलाड़़ी जब अपनी हेकड़ी दिखाता है तो लोग उससे कहते हैं कि ‘‘क्या तू ओलम्पिक से स्वर्ण पदक ला सकता है?‘‘
जब तक भारत के बैटमिंटन और मुक्केबाजी के खिलाड़ी ओलम्पिक के क्वार्टन फाइनलों तक नहीं पहुंचे थे तब तक भारत में लोग यह मानते थे कि हमारा देश खेल में फिसड्डी है। क्रिकेट में फिक्सिंग की बात सामने आयी पर ओलम्पिक की पवित्रता की विचार यह बना रहा है। अब हालत वह नहीं है।
ओलम्पिक के दौरान दोनों ही प्रतियोगिताओं में फिक्सिंग की बात सामने आयी और भारत के खिलाड़ियों के परिणामों पर इसका नकारात्मक प्रभाव दिखा। स्थिति यह रही कि भारतीयों अपील की तो वह निरस्त हो गयी पर जापान और अमेरिका ने जब अपने परास्त खिलाड़ियों के लिये प्रतिवाद प्रस्तुत किया तो उसे मानते हुए विजयश्री प्रदान की गयी। यहां तक ठीक था पर अब पता लगा कि एक देश ने मुक्केबाजी में दो स्वर्ण पदकों के लिये 78 करोड़ खर्च किये। अब अमेरिका और जापान के प्रतिवाद भी इसलिये शंका के दायरे में आ गये हैं क्योंकि दोनो अमीर देश हैं। अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिये पैसा खर्च कर सकते हैं।
ओलम्पिक में भारत अनेक प्रतियोगिताओं में भाग भी नहीं लेता है। उनमें भी फिक्सिंग वगैरह होती हो यहां पता लगाना मुश्किल है। भारतीय मुक्केबाज एक के बाद एक बाहर हुए तो भारत में थोड़ी शर्मिंदगी अनुभव की गयी भले ही उनके हारने पर निर्णायकों के विरुद्ध प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया। अब तो बीबीसी लंदन ने भी मान लिया है कि मुक्केबाजी में जमकर फिक्सिंग होती रही है। भारतीय प्रचार माध्यमों की बात पर कोई भरोसा नहीं करता पर अंग्र्रेजों की राय तो यहां ब्रह्म वाक्य मान ली जाती है। यह अलग बात है कि इसके लिये हमारे प्रचार माध्यमों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार हैं।
बहरहाल अनेक लोग ओलम्पिक खेलों में दिलचस्पी लेते हैं, भले ही उनको भारत में खेला नहीं जाता। ओलम्पिक खेलों में ऐसे खेल और खिलाड़ियों को देखना का अवसर मिलता है जिनके हमारे यहां होने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। इसका कारण यह है कि उन खेलों के लिये धन के साथ खिलाउि़यों को वैसे अवसर भी मिलना अभी हमारे देश में संभव नहीं है। ऐसे खिलाड़ी पैदा नहीं होते बल्कि बनाये जाते हैं। हमारे देश के बच्चों में खेल के प्रति रुझान बहुत रहता है पर उनके लिये वैसे अवसर कहां है जो अमीर देशों के पास हैं। आधुनिक ओलम्पिक के बारे में कहा जाता है कि किसी देश के विकास तथा शक्ति की नाप उसको मिले स्वर्ण पदकों से होती है। इस मामले में चीन का विकास प्रमाणिक हो जाता है।
चीन के हमारे देश में बहुत प्रशंसक है और उन्हें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिए। यह अलग बात है कि सामाजिक विशेषज्ञ चीन के इस विकास को अप्राकृतिक भी मानते है। उस पर तानाशाही खेलों में भी कठोर व्यवस्था अपनाने का आरोप लगाते हैं। अभी हाल ही में ऐसे समाचार भी आये जिसमें वहां के बच्चों को उनकी इच्छा जाने बिना क्रूरतापूर्वक खिलाड़ी बनाया जाता है। इससे एक बात तय रही कि आधुनिक खेल के खिलाड़ी पैदा नहीं होते उनको बनाया जाता है-धन का लोभ हो या प्रतिष्ठा पाने का मोह देकर उनको प्रेरित किया जाता है।
दरअसल हमें वैसे भी ओलम्पिक में अपने निराशाजनक प्रदर्शन पर अधिक कुंठा पालने की आवश्यकता नहीं है। हॉकी में भारत अंतिम स्थान पर रहा इस भी पुराने खेल प्रेमियों को परेशान की जरूरत नहीं है। दरअसल आज के अधिकांश खेल अपा्रकृतिक और कृत्रिम मैदान पर होते हैं। जब तक हॉकी घास के मैदान पर खेली जाती थी तब तक भारत पाकिस्तान के आगे सब देश फीके लगते थे। धीमे धीमें इस खेल को कृत्रिम मैदान पर लाया गया। यह कृत्रिम मैदान हर खिलाड़ी को नहीं मिल सकता और जो सामान्य मैदान पर खेलते हैं उनके लिये वह मैदान अनुकूल भी नहीं है। मतलब यह कि कोई बच्चा हॉकी खिलाड़ी बनना चाहे तो पहले तो उसे मैदान खोजना पड़ेगा फिर हमारे यहां जो बच्चे बिना जूतों के खेल शुरु करते हैं उनके लिये अब हॉकी में पहले जूते होना जरूरी है क्योंकि कृत्रिम मैदान पर उनके बिना खेलना संभव नहीं है। प्रसंगवश यहां बता दें कि क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर खेलने की बात हाती है पर अंग्रेज नहीं मानते। उनको इसका परंपरागत स्वरूप ही पंसद है। अंग्रेजों में यह खूबी है कि वह अपनी परंपरा नहीं छोडते। एक तरह से कहें तो यह हमारा सौभाग्य है। अगर कहीं क्रिकेट भी कृत्रिम मैदान पर प्रारंभ हो गया तो आप समझ लीजिये कि आजकल के बच्चों के लिये समय बिताने का साधन गया। सभी बड़े खिलाड़ी नहीं बनते पर बनने का ख्वाब लेकर अनेक बच्चे व्व्यस्त तो रहते हैं। इसी तरह कुश्ती, तैराकी, जिम्नस्टिक, साइकिलिंग तथा अनेक खेल हैं जिनको सामान्य वर्ग के बच्चे आसानी से नहीं खेल सकते।
मूल बात यह है कि हमारे देश में खेल को प्राकृतिक मैदान पर खेलने की आदत है। बच्चों के लिये यह संभव नही है कि वह दूर दूर जाकर मैदान ढूंढे और खेलें। ऐसे में ओलम्पिक हमारे लिये दूर के ढोल बन जाता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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