रोज पर्दे पर देखकर उनके चेहरे
मन उकता जाता है,
जब तक दूर थे आंखों से
तब तक उनकी ऊंची अदाओं का दिल में ख्वाब था,
दूर के ढोल की तरह उनका रुआब था,
अब देखकर उनकी बेढंगी चाल,
चरित्र पर काले धब्बे देखकर होता है मलाल,
अपने प्रचार की भूख से बेहाल
लोगों का असली रूप
बाहर आ ही जाता है।
कहें दीपक बापू
बाज़ार के सौदागर
हर जगह बैठा देते हैं अपने बुत
इंसानों की तरह जो चलते नज़र आते हैं,
चौराहों पर हर जगह लगी तस्वीर
सूरज की रौशनी में
रंग फीके हो ही जाते हैं,
मुख से बोलना है उनको रोज बोल,
नहीं कर सकते हर शब्द की तोल,
मालिक के इशारे पर उनको कदम बढ़ाना है,
कभी झुकना तो कभी इतराना है,
इंसानों की आंखों में रोज चमकने की उनकी चाहत
जगा देती है आम इंसान के दिमाग की रौशनी
कभी कभी कोई हमाम में खड़े
वस्त्रहीन चेहरों पर नज़र डाल ही जाता है,
एक झूठ सौ बार बोलो
संभव है सच लगने लगे
मगर चेहरों की असलियत का राज
यूं ही नहीं छिप पाता है।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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