जब देश के प्रचार
माध्यमों पर आकाशवाणी तथा दूरदर्शन का एकमात्र शासन था तब देश के बुद्धिजीवी उसे
सरकारीवाणी या कर्कशवाणी कहते हुए थकते नहीं थे। उसकी बदनामी के चलते देश में निजी क्षेत्र में टीवी के मनोरंजन
चैनलों का आगमन हुआ। प्रारंभ में कुछ
चैनलों परं मनोरंजन के साथ ही दूरदर्शन की तरह समाचार भी आते थे। जब दूरदर्शन ने अपना प्रथक से समाचार चैनल प्रारंभ किया तो निजी
क्षेत्र ने भी उसका अनुसरण किया। उदारीकरण
ने ऐसी स्थिति ला दी कि बाज़ार के स्वामी खेल, प्रचार, कला तथा मनोरंजन में भी अपना वर्चस्प बनाने में सफल रहे। यह सब ठीक माना
जाता अगर इन टीवी चैनलों ने दूरदर्शन को अपने प्रसारणों के आधार पर परास्त किया
होता।
कम से कम एक बात तो है कि
दूरदर्शन जब अपने मनोरंजक कार्यक्रम
प्रसारित कर रहा था तब उसमें हास्य, श्रंृगार तथा करुणा रस से भरे कार्यक्रमों का एक स्तर था पर इन निजी
चैनलों ने अपनी प्रसारित सामग्री में इस पर कतई ध्यान नहीं दिया। दूसरी बात तो यह कि हिन्दी समाचार चैनलों ने
कभी दूरदर्शन की तरह अपने प्रसारणों में अपनी व्यवसायिक मर्यादा का पालन नहीं
किया। दुनियां भर की खबरें दस मिनट में सुनाते हैं पर बाकी समय उनका मनोरंजन
चैनलों के कार्यक्रमों के प्रचार पर खर्च होता है। कभी कॉमेडी तो कभी सामाजिक
धारावाहिकों के अंश दिखाकर वह अगर उन्हें समाचार का उसे समाचार का भाग जताना चाहते
हैं तो यह उनकी व्यवसायिक लापरवाही का ही प्रमाण है। वैसे हम उनको क्या कहें?
हमारे देश मेें व्यवसायिक प्रबंध तथा
प्रवृत्ति दोनों का अभाव माना जाता है। जो
कमाई कर रहा है उसे बुद्धिमान तथा पेशेवर मान लिया जाता है। हमारे देश के
बुद्धिमान लोगों ने हमेशा ही अंग्रेजों की नकल की है पर उन जैसा पेशेवराना अंदाज
नहीं अपना सके। यही कारण है कि फिल्म और धारावाहिकों की शैलियां भी उन्हें अमेरिका
और ब्रिटेन के मनोरंजक क्षेत्रों से नकल करनी पड़ती है। हिन्दी के खाने वाले हमारे
मनोरंजक व्यवसायी कहानियां भी उनसे ही लेते हैं।
देश में हिन्दी लेखकों और पटकथाकारों को आगे लाने में उनकी कोई रुचि नहीं
हैं। यही कारण है कि कॉमेडी के नाम फूहड़पन
दिखाते हैं। पता नहीं लोगों को उनके
मनोरंजन में कितनी रुचि है? पर
एक बात तय है कि भारतीय जनमानस को ऐसा फूहड़पन भाता नहीं है। जिन सामाजिक
धारावाहिकों में वास्तव में कहानी रही उनको भारतीय जनमानस ने हृदय से सराहा
है। हास्य धारावाहिकों में अनेक स्तरीय
कार्यक्रम लोकप्रिय रहे हैं। कम से कम एक तो यह है कि भारतीय जनमानस मनोरंजन की
दृष्टि से भी स्वाद जानता है। यही कारण है
कि मनोंरजन व्यवसाय भारत में अभी वैसा सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं कर सका जिसका
दावा प्रचार माध्यम करते रहे हैं। यह अलग
बात है कि मलाई की जगह बासी खिचड़ी बेचने वाले इन मनोरंजक व्यवसायियों को कुछ मन के
भूखे मिल जाते हैं पर यह संख्या अधिक भी हो सकती है यदि वह भारतीय तरीके से
चलें। मुश्किल यह है कि ऐसी सामग्री की
कल्पना करने वाला लेखक चाहिये और वह आसानी से वह नहीं मिलने वाला। जो इन मनोरंजक
व्यवसायियों के यहां चक्कर लगाते हैं वह लिपिकनुमा लेखक है। उससे ही यह लोग काम
चला रहे हैं और उनकी अधिकतर समाग्रियां घटिया स्तर की बन रही है।
उससे भी बुरी बात यह
है कि यह प्रचार माध्यम अपने देशी एजेंडे
का ध्यान नहीं रखते हुए जाने अनजाने में विदेशी एजेंडे की तरफ बढ़ गये हैं। फिल्म हो या धारावाहिक इन पर अगर दृष्टिपात
करें तो भारत में एक ऐसे समाज निर्माण का प्रयास हो रहा है जो आर्थिक दृष्टि से
आधारहीन, वैचारिक दृष्टि से
स्तरहीन और आचरण की दृष्टि से मर्यादाहीन हो।
दूसरी बात यह भी है कि प्रचार व्यवसाय का अर्थशास्त्र कहीं न कहीं विदेशी
भूमि से जुड़ा है। पश्चिम तथा मध्यएशिया
देशों में भारतीय प्रचार माध्यम अपने लिये प्रायोजन के लिये धन के साथ
वहां से दर्शक जुटाने का प्रयास भी
करते हैं। यही कारण है कि
धारावाहिकों तथा फिल्मों की कहानियों में कहीं न कहीं ऐसी सामग्री शामिल अवश्य
होती है जिससे विदेशों में बेचा जा सके। विदेशी नायके लिये देशी खलनायक चुना जाता
है जो अप्रगतिशील आधारों पर चलता हो। इतना
ही नहीं अभिनेता और अभिनेत्रियों के व्यक्तिगत जीवन से जुड़े गॉसिपों में इसका
प्रभाव देखा जा सकता है। जिन लोगों को
अपने देश का ज्ञान है और यह मानते हैं कि हमारा समाज प्रगतिशील है उनको इस बात पर
ध्यान देना चाहिये कि हम भले ही विकास की धारा के पोषक हैं पर विश्व समाज में एक
बहुत बड़ा हिस्सा केवल इसका दावा भर करता है और प्रचार माध्यमों में उसकी संकीर्णता
को छिपाया जाता है। विश्व समाज का एक बहुत
बड़ा हिस्सा उन्मादी, शोषक तथा
हिंसा न करते दिखता है पर कहीं न कहीं वह उसका पोषक है। आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक साम्राज्यवाद की ललक भारत ही नहीं बल्कि विश्व के कई
समाजों में है पर वह संगीत, साहित्य
और कला की आड़ में उसे छिपाने की करता है।
उसके लिये धर्म एक व्यक्तिगत विषय नहीं राज्य प्राप्त करने का शस्त्र है।
हमारे भारतीय समाज में दो व्यक्तियों का धर्म प्रथक हो सकता है पर विश्व समाज के
अनेक भागों में यह स्वीकार्य नहीं है। इस सत्य से आंखें फेरते हुए भारतीय मनोरंजक
व्यवसायी कथित वैश्विक एकता वाली सामग्री प्रसारित करते हुए यह दिखाते हैं कि उनकी
मानसिकता विकसित है।
इस विषय में हम पाकिस्तान का
उदाहरण देंगे। हम यह तो मानते हैं कि पाकिस्तान की जनता में सभी भारत विरोधी नहीं है
पर इतना तय है कि एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारी स्थिति से घृणा करता है। समाजों के
आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने के लिये हमारे मनोरंजक व्यवसायी पाकिस्तान से कलाकार
लाते हैं। कई कहानियों में पाकिस्तान का
लड़का या लड़की का प्रेम होता दिखाते हैं। विवाह भी दिखाते हैं पर उनको यह पता नहीं
कि विवाह का अर्थ संस्कारों का मेल भी होता है।
विवाह पूर्व जब धर्मिक और सामाजिक संस्कारों को निभाने की बात आती है तब
लड़की को ससुराल की बात माननी पड़ती है। विवाह एक सामाजिक अनुबंध है और तय बात है कि
इसका विरोध किया भी नहीं सकता कि लड़की को लड़के के परिवार के संस्कारों को मानना
चाहिये। जिनको सामाजिक संस्कारों से परहेज हो उन्हें विवाह बंधन भी त्याग देना
चाहिये क्योंकि यह मानव सभ्यता को
समाज की देन है पर मनोरंजन व्यवसायियों के
लिये यह संभव नहीं है क्योकि उनकी कहानी का आधार ही प्रेम कहानी का विवाह के रूप
में परिवर्तित होते दिखाना है। बहरहाल एक
बात तय है कि जब तक पाकिस्तान अस्तित्व में है तब तक भारत से उसकी कभी बननी नहीं
है। वह एक उपनिवेश है जिसका उपयोग भारतीय
समाज के दर्शन, साहित्य और कला
का प्रतिरोध करने के लिये किया जाता है। उससे भी बड़ी एक अजीब बात यह है कि क्रिकेट
में पाकिस्तान से भारत के संबंध नहीं है फिर भी भारत के चैनल उसके कमेंटटरों को
बुलाता है तो मैचों के आयोंजक उसके अंपायरों को आमंत्रित करते हैं। तय बात है कि इसके लिये राजनीतिक दबाव कम
विदेशों का आर्थिक दबाव अधिक रहता होगा कि पाकिस्तान को किसी न किसी रूप में
भारतीय खेल तथा मनोरंजन व्यवसाय से जोड़कर रखा जाये। इस पर भारतीय मनोरंजक व्यवसायियों
के आर्थिक स्तोत्रों की भूमि मध्य एशिया में जो कि पाकिस्तान के सहधर्मी राष्ट्र
हैं जिनके लिये कभी कभी वह उपनिवेश का भी काम करता है, उसकी वजह से पाकिस्तान का साथ वह निभाते हैं। कोई समाचार चैनल कभी इसे स्वीकार नहीं कर सकता
क्योंकि कहीं न कहीं वह उन्हीं मनोरंजन व्यवसायियों के स्वामित्व है या फिर वह
उनके विज्ञापनदाता हैं।
बहरहाल अपने आर्थिक
गुणा भाग में माहिर इन टीवी चैनलों के प्रबंधक अपने कार्यक्रमों का स्तर बनाये
रखने में सफल नहीं रहे बल्कि हम जैसे लोगों को अनेक बार दूरदर्शन की याद दिलाते
हैं। यह अलग बात है कि आजकल दूरदर्शन भी इन्हीं व्यवसायिक चैनलों की शैली अपना रहा
है हालांकि सरकारी होने की वजह से अपनी मार्यादायें छोड़ना उसके लिये संभव नहीं है।
यही कारण है कि वह विदेशी एजेंडे को लागू नहीं करता। यह एक अच्छी बात है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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