छोटे कदमों से ही बहुत दूरी की तय है, चिंता से परे चिंत्तन की लय है।
‘दीपकबापू’ सब बटोरने का व्यर्थ प्रयास, अपने खाली हाथ में ही जय है।।
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इश्क की हिम्मत का दावा करते हैं, उद्यान में छिपकर आह भी भरते हैं।
‘दीपकाबापू’ गृहस्थी की कथा बोलें नहीं, शादी के सपने में घर बसते हैं।।
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पराया दुःख अमृत भी बन जाता है, जब अपनी चिंता में मन सताता है।
‘दीपकबापू’ ऊंचे देख गर्दन अकड़ी, जमीन के पानी से गला तर पाता है।
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वाणी जाल में फंस उन्हें मुखिया चुनते हैं, वह फिर स्वार्थ जाल बुनते हैं।
‘दीपकबापू’ धोखे खाने की हुई आदत, नयी उम्मीद के बाद सिर धुनते हैं।।
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घाव देख सब मुंह फेर लेते हैं, आफत में दुश्मन जैसा घेर लेते हैं।
‘दीपकबापू’ भीड़ में खड़े भेड़ की तरह, अंगूर समझकर बेर लेते हैं।।
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पुराने ख्यालों से अब तो रिश्ते फूटे हैं, नये शहर में भी रास्ते टूटे हैं।
‘दीपकबापू’ विकास टांगा दीवार पर, पुराने चित्र भी आंखों से रूठे हैं।
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फांकामस्ती की नहीं पीर कहलाते, मुफ्त के माल से दिल अमीर बहलाते।
‘दीपकबापू’ मासूम पर कर देते हमला, कमजोर होकर भी वीर कहलाते।।
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धरा पर खून बहाने से राज चलते हैं, बादशाह की तरह बाज पलते हैं।
‘दीपकबापू’ बुझा देते अपनी फूंक से, जो रोशन चिराग आज जलते हैं।।
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जमाने में चर्चे कातिलों के होते हैं, दर्द के साथ कोने में मासूम रोते हैं।
‘दीपकबापू’ जज़्बातों के बाज़ार में, हमदर्दी के भी ऊंचे भाव होते हैं।।
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अवैध धंधों के काले धन से हाथ रंगे हैं, ज़माने की नज़र में वही चंगे हैं।
‘दीपकबापू’ सवाल नहीं उठाते नीयत पर, सब भले पकड़े गये वही नंगे हैं।।
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आग से तबाही का वह खेल करते हैं, भड़काने के लिये तेल भरते हैं।
‘दीपकबापू’ न जाने कौन देव कौन असुर, सभी मतलब से मेल करते हैं।।
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दर्द भी जो नशे की तरह पीते हैं, वही दरियादिल जिंदगी जीते हैं।
‘दीपकबापू’ आंसु से अमृत नहीं बनाते, भुलाते रहो जो बुरे पल बीते हैं।।
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वाणी विलास में विकास शब्द भरते हैं, नयी राह की तरफ जाने से डरते हैं।।
‘दीपकबापू’ धरा को रूप बदलते देखा है, लोग यूं ही अपना नाम करते है।।
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