घासफूस के घर में भी इंसान रहते हैं, देह के पसीने में उनके बयान बहते हैं।
‘दीपकबापू’
शिकायतें
अब
नहीं
करते,
माननीयों
की
हर
ठगी
खुलेआम
सहते
हैं।।
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वादे निभाने के लिये नहीं होते, करने वाले कभी शब्दों का बोझ नहीं ढोते।
‘दीपकबापू’
चतुराई
से
बेच
रहे
सपने,
जागने
वाले
उनके
ग्राहक
नहीं
होते।।
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जीवन के सफर में मार्ग भी बदल जाते हैं, कहीं हम कहीं साथी बदल जाते हैं।
‘दीपकबापू’
किसका
इंतजार
करें
किसे
करायें, अपने इरादे भी बदल जाते हैं।।
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सबसे ज्यादा झूठे अपने सिर पर ताज पहने, सज्जन लगे बदनीयती का राज सहने।
‘दीपकबापू’
लाचार
से
ज्यादा
हुए
आलसी,
मक्कार
शान
से
विजयमाला
आज
पहने।।
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बेकार की बातों का जारी है सिलसिला,
तारीफ
के
विचार
पर
है
भारी
गिला।
‘दीपकबापू’
ढूंढते
जहान
में
मीठे
बोल,
हर
शब्द
अर्थ
मिठास
से
खाली
मिला।।
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खरीदने से न मिले खुशी सभी जाने, बांटने से बढ़ती जाती सभी माने।
‘दीपकबापू’
सोचते
कोई
खुश
न
दिखे,
चिंता
में
सभी
खड़े
मुक्का
ताने।।
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अपने सपने सभी ने सजा लिये, जीते है सभी पराये दर्द का मजा लिये।
‘दीपकबापू’
मृत
संवेदना
के
साथी,
कौन
सुने
दर्द
सभी
ने
मुंह
बजा
लिये।
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वादों के सौदागरों का याद से नाता नहीं, भूलने से कुछ उनका जाता नहीं।
‘दीपकबापू’
बातों
से
पकाते
लोगों
का
दिमाग,
भरती
जेब
मगर
कुछ
जाता
नहीं।।
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भूख जिसे लगी उसने रोटी पाई, हर गुंजरते पहर खाली पेट लेता अंगड़ाई।
‘दीपकबापू’
सब
पाया
दिल
का
चैन
छोड़,
हर
ऊंचे
पर्वत
से
लगी
मिली
खाई।।
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