विकास अब धुंध बनकर खड़ा है,
सौम्य सुबह में धुआं जड़ा है।
‘दीपकबापू’ अंधे लेते रौशनी का ठेका
उनकी लगाई आग में शहर खड़ा है।
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मत पूछना हिसाब उनसे
उनके खाते बहुत बड़े हैं।
‘दीपकबापू’ तुम पड़े जमीन पर
वह दौलत के पहाड़ पर खड़े हैं।
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कोई कहता है ख्वाहिशें छोड़ दो,
कोई उकसाता दिल में नई जोड़ दो।
‘दीपकबापू’ चीजों के गुलाम कहें
नयी खरीदो पुरानी जल्दी तोड़ दो।
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मन गुलाम फिर भी आजादी की चाह है,
लालच का अवरोध बंद सभी राह है।
‘दीपकबापू’ तन से बुरा आलस मन का
योद्धा पूजे सोते शव को किसने सराह है।
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