भ्रष्टाचार में डूबे भलाई की बात करें, भुखमरी पर रोयें अपने मुख में मलाई साथ भरें।
‘दीपकबापू’ पांच साल में एक बार हाथ जोड़ते, फिर तो आमजन के सिर लात धरें।।
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नैतिकता की बात कर छिपाते अपने पाप, ज़माने के भ्रष्टाचार का करें विज्ञापन जाप।
‘दीपकबापू’ गणित पढ़ा समझा नहीं गुणा भाग, सत्ता के दलाल बने इ्र्रमानदार छाप।।
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रुपहले पर्दे पर जंग का समाचार सजा, कभी कभी धर्म संदेश का बाजा भी बजा।
‘दीपकबापू’ खौफ और इश्क से दूर रहते, वह लोग जिनके पास अंदर ही है मजा।।
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पहरेदारों के सामने जिंदा लोग लापता हो जाते, ज़माने के सामने फिर मुर्दा हो जाते।
‘दीपकबापू’ हथियार में डालते कातिल जज़्बात, कायर हाथ में लेकर बहादुर हो जाते।
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दोवास में व्यापार का ढोल बजा है, दिल्ली में बाज़ार बंद दुकान से सजा है।
स्वदेश का जुमला भूल जाओ यारो, विदेशों में हमारे विकास का डंका बजा है।।
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मनोरंजन के नाम मरा इतिहास हैं पेले, महंगे भवन बन गये सभ्यता के ठेले।
‘दीपकबापू’ पढ़ते अपने अध्यात्मिक पावन ग्रंथ, नहीं भाते उनको ख्वाबी खेले।।
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