वह बड़े दिखते क्योंकि आंखों से परे हैं, प्रचार के नायक मानो सिर पर बोझ धरे हैं।
‘दीपकबापू’ विज्ञापनों से भ्रमित हो जाते, वीर पद पर विराजे लोग तो रोगों से भरे हैं।।
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पर्दे के नायकों के घर भी मन रहता है, नकली हंसी आंसुओ से वहां धन बहता है।
‘दीपकबापू’ अपने अंदर नहीं झांकते कभी, परायी अदाओं पर वाह हर जन कहता है।।
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भीड़ बहुत दिखती फिर भी होता सन्नाटा, चीखती आवाजों को खामोशी से पाटा।
दीपकबापू स्वार्थियों से खरीद लेते परोपकार, जिनके सौदे में कभी नहीं होता घाटा।।
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विकास क्रम में मंगल पर हम पहुंच गये, धरती पर खोद डालते गड्ढे रोज नये।
‘दीपकबापू’ रुपये का मोल गिराते जा रहे, डॉलर की आशिकी में बर्बाद हो गये।।
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राजाओं के खेल में प्रजा बनती खिलौना, तख्त पर बैठ चरित्र का हो जो बौना।
‘दीपकबापू’ घर का आश्रम मन ही मंदिर बनाते, लगाते तख्ती हम बाबा मौना।।
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शोर के बीच मजा तलाशते हुए लोग, बाहर ढूंढते दवा अंदर स्वयं पालते रोग।
‘दीपकबापू’ त्यागी ढूंढते दरबार में जाकर, जहां पाखंडी सजाते नये भिन्न भोग।।
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गैर को पापी कहकर स्वयं धर्म धारा में बहें, अपने स्वार्थ का काम परमार्थ कहें।
भीड़ में शोर मचाकर ले रहे नाम, ‘दीपकबापू’ सोने से र्घर भरकर उदासीन रहें।।
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अच्छे दिन की प्रतीक्षा में सब जन खड़े, चढ़ना है बस वादों के पहाड़ बड़े बड़े।
‘दीपकबापू’ आंखें खोलकर इधर उधर देखते, सपनों के घर बेबसी के ताले जड़े।।
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