जहां पेड़ पर पत्ते थे वहां लोहे के जंगलें लगे हैं, दीवाने दिल अब परायेपन के सगे हैं।
‘दीपकबापू’ दौलत की चमक से चक्षु दृष्टिहीन हुए, चालाक उनसे पूरी रौशनी ठगे हैं।।
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भूख से ज्यादा रोटी पकाने में हैं अटके, पांव से ज्यादा सिर के बाल हैं झटके।
‘दीपकबापू’ पैसा और पद पाकर हुए अंधे, नीचे गिरने के भय से ऊपर हैं अटके।।
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सत्ता के घोड़े पर सवार सभी पवित्र होते, भ्रष्टाचार रस में जो नहाये वही इत्र होते।
‘दीपकबापू’ राजधर्म निभा रहे कातिल बाज़ बड़े पाखंडी ही अब सच्चे जनमित्र होते।।
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दावे बहुत कातें राज करना आता नहीं, शास्त्र रटेते पर काज करना आता नहीं।
‘दीपकबापू’ सीना फुलाकर घूम रहे शहर में, ताकत पर नाज करना आता नहीं।।
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इष्ट जैसे ही भक्त भी हो जाते, गुण दोष न जाने पूजा में खो जाते।
‘दीपकबापू’ तस्वीरों के वादों पर फिदा, नारेबाजी का बोझ ढो जाते।।
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बाग़ के मीठे फल रखवाले स्वयं खायें, मालिक के मुंह कड़वा स्वाद चखायें।
‘दीपकबापू’ कलियुग का साथी लोकतंत्र, प्रजा का माल राजा अपना बखायें।।
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