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Monday, January 18, 2010

सोचने की पहल-व्यंग्य कविता (sochne ki pahal-vyangya kavita)

महानायकों के झुंड के बीच

खड़ा है आम आदमी

हैरान होता  यह सोचकर कि

किसकी आरती वह पहले करे।

सुबह छाया पर्दे पर फिल्म का नायक

दोपहर को गा रहा है भजन गायक

शाम को नजर आ रहा है

आतंक का खलनायक

किसे करे प्रेम

किस पर दिखाये गुस्सा

पहले नज़रों में उसके चेहरा तो तो भरे।

मगर पर्दे पर हर पल

दृश्य बदल रहा है

कभी हंसी आती है तो

कभी दिल दहल रहा है

इतने नायक और खलनायकों को

देखने से तो पहले फुरसत तो मिले

तब वह कुछ वह सोचने की पहल करे।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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