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Wednesday, October 29, 2008

आग को आंखें नहीं होती-व्यंग्य कविता

अपने घर की रौशनी जमाने को
दिखाने के लिये
दूसरों के बुझा देते हैं वह चिराग
नहीं जानते वह
मददगार होते
जब तक प्यार से इस्तेमाल करो
भड़क उठे तो किसी के दोस्त नहीं होते

पानी, हवा और आग
अंधेरा कर दूसरे के घरों में
वह मुस्कराते हैं
अहंकार दिखाते हैं
पर नहीं जानते
जब तक समय साथ है
आदमी बलवान लगता है
पर जब लगता है पलटने तो
हवायें गर्म हो जाती र्हैं
पानी सामने ही हवा हो जाता है
तब मुश्किलों में पल पल होते
.................................
जब लगाते हो
कहीं तुम नफरत की आग
तब अपनी खैर पर भी यकीन नहीं करना
उस आग को आंखें नहीं होती
फैलती है जब चारों तरफ
ले सकती हैं तुम्हारे घर को भी चपेट में
जब बहेगा उसके अंगारों का झरना

......................................
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