इंसान करता है जंग हमेशा
अपनी हालातों से
पैसे से खरीद लेता है कोई
घर की सारी खुशियां
जहां नहीं है
वहां काम चलाता है बातों से
सभी का है अलग अलग दर्द
पर जमाने में भला करने वाले सौदागर
अकेले इंसान की मुश्किल
दूर करने से कतराते
संग हो जाते भीड़ बनी जमातों से
इंसान बोलता है पर
जमातें जब भीड़ बन जाती है
उसमें वह भेड़ बन जाता है
उस भीड़ में सुनना जरूरी है
पर बोलना मना है
रौशनी पर सोचने की है इजाजत
पर आंखों को देखना हैं वहां
जहां अंधेरा घना है
अक्ल का इस्तेमाल करने पर है बंदिश
चलना है उस पर ख्वाब पर
जो केवल सोचने के लिये बना है
इसलिये बंद कर दिया है
इंसानों अपनी जमातों के लिए बाहर आना
इतने धोखे खाये हैं कि
रौशनी का कितना भी भरोसा दिलाओ
उसे यकीन नहीं आता
पंसद है रहना उसे अपनी अंधियारी रातों से
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यह हिंदी लघुकथा मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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कवि और संपादक-दीपक भारतदीप
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