अपने लिए नहीं मांगते सिंहासन
दो पल की रोटी की खातिर
मजदूर इधर से उधर जाते
अपने पसीने की धारा में
अपना पूरा जीवन गुजारते
नहीं किसी का खून चूसने जाते
नहीं करते चोरी
न करते लूट
इसलिए रोज चैन की नींद सो जाते
जिनका जीवन बीतता है रोज
छल कपट के साथ
दौड़ते जाते माया के पीछे
फिर भी नहीं आती वह हाथ
दिन में चैन नहीं है
रात को नींद नही
वह गरीब मजदूर को नहीं सह पाते
ऊंचे महलों में भी जिनको सुख नसीब नही
थाली में सजे पकवान
पर पेट में जाने का उनकों रास्ता नहीं
मजदूर के तिनकों के घरोंदों को
भी देखते तिरछी नजर से
उसकी रोटी के सूखे टुकड़े को
देख कर उनके पेट जलते
क्योंकि सुख का मतलब वह नहीं समझ पाते
शायद इसलिए जब भी
होता है कहीं हंगामा
मजदूर बनता है निशाना
दुनिया के लोग भले ही अमीरों के
स्वांग पर करते हैं नजर
पर मजदूर के सच की अग्नि की
आंच भी नहीं झेल पाते
कोई नहीं होता हमदर्द पर फिर भी
मजदूर जिए जाते
यह जिन्दगी सर्वशक्तिमान की देन है
यही सन्देश फैलाते जाते
अमीरों के चौखट पर
हाजिर करने वाले बहुत होते पर
पर मजदूरों के पसीने के बिना
कभी किसी के महल नहीं बन पाते
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3 years ago
1 comment:
कविता सुंदर है। लेकिन यह व्यंग्य नहीं यथार्थ है।
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