इंटरनेट पर एक हिंद ब्लॉग में लिखा गया वह एक दिलचस्प लेख था! मन में आया टिप्पणी करना चाहिए! लेख दोबारा पढ़ा तो लगा कि चलो एक अपना पाठ ही लिख लेते हैं क्योंकि भारतीय योग साधना से संबंधित विधियां और उनके महत्व को लेकर विश्व भर में चर्चा हो रही है पर उसके मूल तत्व किसी को नहीं दिखाई दे रहे हैं। एक तरह से अंधों का हाथी हो गया है भारतीय योग जो केवल देह के इर्दगिर्द ही घूम रहा है और मन और विचारों में उससे होने वाले परिवर्तनों को अनदेखा किया जा रहा है।
बात उन दिनों की है जब इस लेखक ने योग साधना प्रारंभ की थी। शायद दस वर्ष पूर्व की बात होगी तब बाबा रामदेव का नाम इतना प्रसिद्ध नहीं था। भारतीय योग संस्थान के शिविर में अनेक साधकों से भेंट होती। कुछ अन्यत्र शिविरों की भी जानकारी आती थी। ऐसे ही अन्यत्र चल रहे योग शिविर की जानकारी मिली कि एक शिक्षक ने अचानक ही साधना का परित्याग कर दिया था। एक साधक ने बताया कि उनके किसी संत गुरु ने उनको योग साधना करने से मना कर कहा था कि इससे भगवान के प्रति भक्ति भाव कम होता है। अपने गुरु के आदेश का उन्होंने पालन किया। बात आई गयी खत्म होना चाहिए थी, मगर हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अनेक लोग योग साधना के बारे में अनेक संशय पाले हुए हैं। उससे भी ज्यादा यह बात कि लोग इससे अनेक प्रकार की सिद्धियां होने का दावा करते हैं। यह दोनों ही बुरी बात है और मन में असहजता का भाव उत्पन्न करती हैं जो कि ठीक योग के विरुद्ध है। योग साधना से केवल देह, मन और विचारों में सकारात्मक भाव पैदा होता है इससे अधिक कुछ नहीं। अगर कोई योग साधक श्रीमद्भागवत गीता पढ़ ले तो वह अध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाता है और तब स्वर्ग में टिकट दिलाने, हर मर्ज की दवा देने, मनोरंजन करने, सौंदर्य बनाये रखने और काम शक्ति बढ़ाने के उपाय बताने के नाम पर उस पर शासन करने वाले बाज़ार तथा प्रचार का उस नियंत्रण उस पर से समाप्त हो जाता है। सभी योग साधक श्रीमद्भागवत गीता पढ़ें यह जरूरी नहीं है पर चरम पर आने के बाद उसका मन ऐसे तत्व ज्ञान की तरफ स्वतः ही बढ़ता है। ऐसे में वह इस संसार में बुद्धि और मन के आधार पर सामान्य मनुष्यों पर शासन करने वाली शक्तियों के घेरे से बाहर हो जाता है। कोई वाद या विचार उसके आगे निरर्थक विषय के अलावा कुछ नहीं रह जाता। वह संसार के सामान्य कर्म नहीं त्यागता वरन् वह एक स्वतंत्र और मौलिक कर्मयोगी मनुष्य बन जाता है। यही से शुरु होता है योग का विरोध जो शासन और बाज़ार के स्वामी अपने प्रचारकों से करवाते हैं।
उस लेख में बाबा रामदेव के फिनोमिना की बात कही गयी थी। लिखने वाले स्वयं ही कार्ल मार्क्स की किताब पूंजी से प्रभावित हैं। कार्ल मार्क्स का नाम और उनकी पूंजी किताब का भी एक समय फिनोमिना रहा है। कार्ल मार्क्स एक विदेशी लेखक था और उसके विचारों को भारत के संबंध में अप्रासंगिक माना जाता रहा है, मगर शैक्षणिक संस्थानों तथा साहित्यक क्षेत्रों में एक समय ऐसे लोगों का जमावड़ा था जो सोवियत संघ की कथित क्रांति के प्रभाव में वैसी ही क्रांति अपने देश में लाना चाहते थे और गरीब और मज़दूर का उद्धार करना ही उनका लक्ष्य था। उनकी बहसें कॉफी हाउसों में होती थी। यह बहसें या मुलाकतें एक फैशन थी जो किसी विचार या आंदोलन का निर्माण करने में सहायक नहीं थी। उन्होंने इस देश में बुद्धिजीवियों की ऐसी छबि का निर्माण किया जिसका अपना फिनोमना जनता में था। यही कारण था कि ऐसे लोग जो कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रभावित नहीं थे और कहीं न कहीं उनके मन में अपने भारत की विचाराधारा का प्रभाव था वह भी उनकी शैली अपनाने लगे। इससे भारत में विचारधाराओं का फिनोमिना बढ़ा। नये नये देवता गढ़े गये मगर चूंकि सभी भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे थे इसलिये चिंतन केवल चिंता तक सिमट गया। ऐसे में भारतीय योग को देशी विचारधारा के लोग भी एक बेकार चीज़ मानने लगे थे। उनका मानना था कि योगियों की निष्क्रियता की वज़ह से ही विदेशी यहां आकर जम गये जबकि सच यह है कि यह केवल अधंविश्वासी तथा पाखंडी लोगों की सक्रियता से हुआ था। श्रीमद्भागवत गीता को तो केवल सन्यासियों के लिये प्रचारित किया गया।
ऐसे में यह देश बहुत बड़े वैचारिक भटकाव में फंस गया और नतीजा यह निकला कि नारे और वाद ही दर्शन बनकर रह गये मगर यह समाज बिना फिनोमिना के चलने के आदी नहीं है। एक आदर्श आदमी के फिनोमिना में चलने के आदी इस समाज को अगर बाबा रामदेव नाम का नायक मिल गया तो उस पर अध्यात्मिकवादी लोग खुश ही होते हैं। रहा बाज़ार और उसके प्रचारतंत्र का सवाल तो उसके दोनों ही हाथों में लड्डू रहने है और इसे रोकना मुश्किल काम हैं। मुश्किल यह है कि वैचारिक भटकाव के समय इस देश में ऐसे बुद्धिजीवियों की भरमार हो गयी जो चिंतन कम चिंताओं पर अधिक लिखते हैं। समस्याओं को उभारते हैं पर हल उनके पास नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि वह समाज को वैचारिक रूप से आत्मनिर्भर बनाकर समस्याओं का हल ढूंढने की बजाय सरकारी कानूनों से करने की शैली आज के बुद्धिजीवियों में है। पराश्रित बुद्धिजीवी जब योग साधना पर लिखते हैं तो उनका सामना करने वाले लोग भी वैसे ही हैं। आदमी जब दैहिक तनाव से मुक्त होगा वह मानसिक और वैचारिक रूप से स्वतंत्र हो जायेगा। ऐसे में इन बुद्धिजीवियों की सुनेगा कौन?
अमेरिका के एक पादरी ने घोषित किया कि भारतीय योग साधना ईसाई धर्म के विरुद्ध है। इस पर भारत में कुछ लोगों ने विरोध किया। विरोध करने वालों का कहना है कि यह ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं है। यह विरोध करने वाले नहीं जानते कि अनेक हिन्दू संत ही इसका विरोध करते हैं।
सच बात तो यह है कि पूरे विश्व में इतने सारे धर्म होना ही इसका प्रमाण है कि इसके नाम पर जनसमुदाय में भ्रम फैलाया जाता रहा है। किसी भी भारतीय ग्रंथ में धर्म का कोई नाम नहीं है और इसका आशय केवल आचरण से लिया जाता रहा है। मतलब पूरी दुनियां में दो ही प्रवृतियां रहती हैं एक धर्म की दूसरी अधर्म की! धर्म के नाम पर बांटने का काम तो पश्चिम से ही आया है। इसका कारण यह रहा है कि लोग अपने संकटों, बीमारियों तथा अन्य समस्याओं का हल दूसरे से कराना चाहते हैं। योग मनुष्य को शारीरिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर बनाता है। जब व्यक्ति आत्मनिर्भर हो जायेगा और धर्म का मतलब समझ जायेगा तब वह किसी भी धर्म के किसी ठेकेदार के पास नहीं जायेगा। यह योग तो हर धर्म के लिये खतरा है जिसमें इंसान स्वयं ही इंसान होकर जीना सीख जाता है। ऐसे में सभी धर्म प्रेम, अहिंसा तथा दया भाव से जीना सिखाते हैं जैसी बातें सुनाकर बहसें और चर्चा करने वाले तथा शांति संदेश बेचने वालों का क्या होगा? यही कारण है कि योग फिनोमिना से बहुत लोग आतंकित हैं क्योंकि आधुनिक बाज़ार तथा उसके प्रचारकों का फिनोमिना कम होने का खतरा है। हमने फिनोमिना शब्द का अर्थ इधर उधर ढूंढा पर मिला नहीं। इसका आशय हिन्दी में प्रभाव या प्रभावी हो सकता है और इसीलिये फिनोमिना शब्द प्रयोग करके देखा है। जब आप योग साधना करते हैं तो ऐसे प्रयोगों की प्रेरणा स्वतः पैदा होती है। यह लेखक कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं है पर योग फिनोमिना की वजह से ही यह लिखने को विवश हुआ है इसमें संदेह नहीं है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेशwriter and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
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