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Sunday, February 27, 2011

इश्तहार-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (adevertisment-hindi satire poem)

चीजें खरीदने से भला ख्वाब
कब पूरे हो जाते हैं,
इश्तहार देखकर
बाज़ार में जेब ढीली करने के बाद
खुद को लफ्जों के शिकार की तरह पाते हैं।
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गरीबों की गरीबी
इश्तहार में भी बिकने की लिये आती है,
बाज़ार में भलाई वह शय है
जो ख्वाबों के भाव बिक जाती है।
आम इंसान पर्दे का दीवाना है
बना दें जिसे सौदागर फरिश्ता
अदाओं के पीछे
उसकी औकात और असलियत
चंद नारों के पीछे छिप जाती है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com

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