इस लेखक के ब्लाग ईपत्रिका ने पाठक तथा पाठन संख्या दो लाख पार कर ली है। यह कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है पर फिर भी यह बताना जरूरी है कि हिन्दी पत्रिका के बाद यह दूसरा ब्लाग है जिसने यह उपलब्धि प्राप्त की है।
दूसरे की रचना सभी के लिये समालोचना-प्रशंसा और आलोचना-का विषय होती है। फिल्म, नाटक, साहित्य, पत्रकारिता तथा चित्रकारी जैसे विषयों से रचनात्मक लोग निर्वाह कर पाते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अभिव्यक्ति बाह्य रूप से प्रकट करने की क्षमता होती है जबकि सामान्य आदमी केवल रचना करने की सोचकर रह जाता है। वैसे देखा जाये तो हर मनुष्य अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति करना चाहता है पर कभी संकोच तथा कभी उचित ज्ञान का अभाव उसे ऐसा करने नहीं देता। तब मनुष्य दूसरे की अभिव्यक्ति में अपने मन के उतार चढ़ाव देखकर प्रसन्न होता है। यही कारण है कि इस संसार में रचनाकारों की हर प्रकार की रचना आम इंसानों के लिये मनोरंजन का विषय होती है। विश्व में इंटरनेट के आगमन ने अभिव्यक्ति के स्वरूप का विस्तार किया पर इसमें तकनीकी ज्ञान होने की अनिवार्यता ने असहज भी बनाया है। हम यहां केवल हिन्दी भाषा के संदर्भ में ही विचार करें तो अच्छा रहेगा क्योंकि अन्य भाषाओं की अपेक्षा इससे संबद्ध लोगों की संख्या अधिक होने के बावजूद इसे इंटरनेट पर प्रतिष्ठित होने में समय लग रहा है।
पहली बात तो यह कि हिन्दी में रचनाकारों की संख्या में कभी कमी नहीं रही पर स्तरीय रचनाओं को समाज के सामने प्रकट होने का मार्ग हमेशा दुरूह रहा है। हिन्दी में लिखने की क्षमता होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे पाठकों के सामने जाने का मार्ग प्रशस्त करने की कला भी आना चाहिए। आज़ादी के बाद इस देश में हिन्दी का प्रचलन बढ़ा जरूर मगर इससे जुड़े आर्थिक तथा सामाजिक ढांचे में कार्यरत प्रबंधकों ने लेखक को कभी महत्व नहीं दिया। एक तरह से यह योजना जाने अनजाने अपना काम करती रही कि इस भाषा में कोई लेखक केवल अपनी लेखन क्षमता के कारण पूज्यनीय नहीं बनना चाहिए। उसकी स्थिति लिपिकीय रहना चाहिये न कि उसके स्वामित्व का बोध समाज के सामने प्रकट हो। यही कारण है फिल्म, पत्रकारिता, साहित्य तथा कला के क्षेत्र में ऐसे लोगों को प्रतिष्ठा मिली जिनका समाज न कभी स्तरीय नहीं माना या फिर उनकी रचनाओं को वर्तमान समाज के सरोकारों से दूर काल्पनिक माना गया।
अगर हम आज हिन्दी की स्थिति को देखें तो पाएंगे कि भक्ति काल के सूर, तुलसी,मीरा, कबीर,रहीम,रसखान तथा अन्य कवि रचनाकार कम संत अधिक माने जाते हैं। इस काल का हिन्दी भाषा का स्वर्णिम काल माना जाता है जबकि दिलचस्प बात यह कि इनमें से एक की भी रचना आधुनिक हिन्दी में नहीं है। ऐसे में अन्य कालों के लेखकों को श्रेष्ठ दर्जा न मिल पाना न केवल हमारे भाषा के विकास परप्रश्नचिन्ह लगाता है बल्कि समाज को आत्ममंथन के लिये भरी प्रेरित करता है। इससे हम एक बात समझ सकते हैं कि भारतीय जनमानस ऐसे साहित्य में कम दिलचस्पी लेता है जिससे उसको अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती।
जब हम आधुनिक काल के रचनाकारों को देखते हैं तो वह समाज की घटनाओं को अपनी रचना में जगह देते हैं तो वह केवल तथ्यात्मक हो जाते हैं। वह मानकर चलते हैं कि उनकी प्रस्तुति से समाज स्वयं चिंतन कर निष्कर्ष निकाले। इसके विपरीत भारतीय जनमानस ऐसी स्पष्ट रचना चाहता है जिसमें तथ्यों के साथ स्पष्ट निष्कर्ष और प्रेरणा हो। देश की गरीबी, बेरोजगारी तथा अपराध का ग्राफ बढ़ा है और अगर हम समाज की स्थिति का अवलोकन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि लोगों में चेतना इसलिये नहीं है क्योंकि वह चिंतन नहीं करते। चिंतन से चेतना आती है और चेतना से ही चिंतन होता है। तब ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी रचनायें हों जिससे चिंतन पैदा हो या चेतना। यह तभी संभव है जब कोई अपनी रचनाओं को तथ्यात्मक प्रस्तुति की सीमा से बाहर निकालकर स्पष्ट संदेश दे। हालांकि जरूरत इस बात की भी है कि समाज उनको प्रोत्साहित करे। जबकि हो यह रहा है कि मनोरंजन परोसकर उनकी चेतना और चिंतन क्षमता को समाप्त किया जा रहा है।
ऐसे में जब इंटरनेट पर हिन्दी लिखने का सवाल आता है तो यह भी स्थिति सामने होती है कि पढ़ने वाले बहुत कम हैं। इस पर दूसरी समस्या यह कि यहां लेखक के स्वामी होने का प्रश्न तो दूर उसकी लिपिकीय स्थिति भी नहीं है जो कार्यालय में लिख कर पैसा कमाते हैं। उसे एकदम फोकटिया प्रयोक्ता मानकर छोड़ दिया गया है। ऐसे में वही लोग इस पर लिख सकते हैं जिनके पास इंटरनेट पर पैसा खर्च करने की क्षमता के साथ लिखने के साथ ही पढ़ने का शौक है। जिन लोगों को यहां लिखने से पैसा मिल सकता है तो उनकी भी स्थिति परांपरागत बाज़ार के बंधुआ से अधिक नहीं है और ऐसे में वैसी रचनायें आयेंगी जो बाहर मिल जाती हैं। तब ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है कि हिन्दी का आम पाठक सरलता से पढ़ सके जाने वाले अखबार की जगह अपनी आंखें यहां बरबाद करेगा।
इधर इंटरनेट पर पिछले सात आठ वर्ष से हिन्दी में लिखने का प्रयास हो रहा है पर इसमें तेजी से बढ़ोतरी पिछले चार वर्ष में हुई है। वह भी एकदम नाकाफी है। हम इसके लिये हिन्दी पाठकों को दोष नहीं दे सकते क्योंकि यह बात नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहां नयी तकनीकी को अपनाने की क्षमता तो है पर उसमें सुविधा की चाहत भी है। इंटरनेट खोलने और उसमें लिखने के लिये थोड़ा अधिक तकनीकी ज्ञान चाहिए। इसके विपरीत घर आये अखबार को उठाकर पढ़ने में कोई अधिक कष्ट नहीं होता। फिर लिखना स्वयं की अभिव्यक्ति की चाहत वालों के लिये है और मोबाइल इसके लिये अच्छा काम करता है। हाथ में उठाकर किसी को भी संदेश भेज दो। वह चाहे जैसा भी हो दिवाली या होली की बधाई का हो या इश्क के इजहार के लिये। मतलब यह कि इंटरनेट का अभी अभिव्यक्ति के लिये उपयोग करने के लिये लोग तैयार नहीं है।
ऐसे में लोग अपनी अभिव्यक्ति को दूसरे के सामने देखकर खुश होते हैं। बड़े पाठ या कविताओं की रचना का माद्दा सभी में नहीं हो सकता। अगर देखा जाये तो मोबाइल ने भारतीय समाज में अंतिम व्यक्ति के हाथ में अपनी जगह बना ली है। मोबाइल में कैमरा, टीवी और रेडियो की सुविधायें हैं और लोग धड़ल्ले से उनका उपयोग कर रहे हैं। उसमें भी तकनीकी ज्ञान चाहिए पर अपनी सुविधा के लिये भारतीय जनमानस उस हद तक चला जाता है। मोबाइल के इर्दगिर्द सिमट रहे समाज में अभिव्यक्ति के लिये कंप्यूटर या लैपटाप के लिये कम ही जगह बची है। यह अलग बात है कि कंप्यूटर पर काम कर चुके आदमी के लिये मोबाईल छोटी चीज हो जाती है। चाहे कितने भी प्रयास किये जायें मोबाईल पर संदेश तो सीमित शब्द संख्या में ही लिखा जायेगा। उसमें भी आंख और हाथ को जो कष्ट होता है उसकी अनुभूति संदेश की अभिव्यक्ति के कारण नहीं होती है पर अंततः उबाऊ तो है।
एक बात तय हो गयी है कि भारतीय समाज प्रचार से संचालित होता है। जिनके पास प्रचार की शक्ति है वह चाहें तो लोगों के दिमाग में जगह बना सकते हैं। जब पहले ब्लाग की चर्चा प्रचार माध्यम करते थे तब लोगों का ध्यान इसकी तरफ आकर्षित हुआ। फिर ट्विटर आया और अब फेसबुक। ट्विटर में एक बार में सीमित संख्या के शब्द दर्ज किये जा सकते हैं जबकि फेसबुक असीमित शब्द संजो सकती है। प्रचार माध्यम जब पहले ब्लाग की चर्चा करते थे तो प्रचार में शिखर पर प्रतिष्ठत लोगों के ब्लाग की चर्चा अवश्य करते थे। अब ट्विटर या फेसबुक की चर्चा भी होती है तो लगभग यही रवैया है। मतलब सीधी बात यह है कि जो भी शिखर पुरुष करते हैं वही समाज देखे, यह प्रचार माध्यमों का रवैया है। यही वजह है कि अनेक लोगों ने ट्विटर और फेसबुक पर अपना खाते खोल लिये। यह आसान था पर ब्लाग बनाना थोड़ा कठिन है यह अलग बात है कि लेखकों के लिये ब्लाग से बढ़िया कोई चीज नहीं है। यह अलग बात है कि हिन्दी लेखक के लिये यह मार्ग कठिन है। अगर वह केवल लेखक हैं तो उनके विचार, कवितायें, या लेख के अंश कोई भी चुरा कर अपने नाम से अभिव्यक्ति दे सकता है। यह हो भी रहा है। जैसा कि भारतीय बाज़ार व्यवस्था की योजना वह लेखक को केवल लिखने के दम पर पनपने नहीं दे सकती। यही कारण है कि राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और अपराध के विषयों पर प्रचार माध्यमों में प्रतिष्ठित लेखक हमेशा उसी लकीर पर चलते हैं जो एक बार बनाई तो उसके स्वामी हो गये। उथले विचारों और निरर्थक बहसों के साथ ही अंगभीर संवाद होता है। गंभीर विषय पर बात करते हास्य की बात कहकर अगर कहा जाये कि लोगों का जायका कदला जा रहा है तो समझ लीजिये कि लेखक-पाठक तथा वक्ता-श्रोता में सहज भाव की कमी है।
हम जब ब्लाग पर लिखते हैं तो यह लक्ष्य नहीं रखते कि कौन पढ़ रहा है बल्कि यह सोचते हैं कि हम लिख रहे हैं। पैसा नहीं मिलता। फोकटिया लेखक है इसलिये रचनायें हमेशा ही मनस्थिति से प्रभावित होती हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो बहुत समय बाद पढ़ने पर ऐसा लगता है कि यह बेकार लिखा गया। जो अच्छी लगती हैं उन पर भी यह ख्याल आता है कि इससे अच्छा लिखा जा सकता था। आभासी दुनियां में यह शब्दों का सफर अपने होने की आत्ममुग्धता से भरपूर है। लोगों ने क्या समझा यह कभी विचार नहीं किया। लिखते लिखते हम क्या सीखे, नजरिये में कैसे सुधार आया, कई मिथक कैसे टूट गये, समाज की व्यवस्था में कैसे शिखर बनते बिगड़ते हैं, यह सब हमने इंटरनेट पर लिखते लिखते देखा। सच बात तो यह है कि हम पहले भी परंपरागत विषयों पर दूसरों के तर्क नहीं मानते थे तब बहस होती तो अपने तर्क ठोस ढंग से नहीं कह पाते। अब अपनेत तर्क हैं जिनसे किसी भी विषय पर किसी को भी घेरा जा सकता है। यह लिखने से आये आत्मविश्वास का ही परिणाम है। ईपत्रिका के दो लाख पठन/पाठक संख्या पर करने पर बस इतना ही है।
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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