हर पड़ाव
हमारे सामने है
नए रूप में,
आँखों में भ्रम
पहचान नहीं है
बदलाव की,
जड़ बुद्धि में
एक जगह खड़ा
घमंडी सोच,
नए रूप में
अपने मिटने का
उसे भय है,
बड़ा खतरा
दुश्मन से नहीं
अपने से है,
निरंकुश है
इंसान का दिमाग
बिखरता है,
थोड़े भय में
काँपते हाथ पैर
हारा आदमी,
हाथ उठाता
आकाश की तरफ
रक्षा के लिए,
मुश्किल है
लोगों को समझाना
ज़िंदा दिल हो,
अपनी सोच
काबू में रखा करो
कटार जैसे,
नहीं तो कटो
बेआसरा होकर
जैसे घास हो।
अपनी शक्ति
अपने अंदर है
ढूंढो तो सही
अपने हाथ
याचक न बनाओ
यूं न फैलाओ
अपनी सोच
अपने हाथ लाओ
विजेता बनो।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment