बसंत पंचमी का दिन भारतीय मौसम विज्ञान के अनुसार समशीतोष्ण वातावरण के प्रारंभ होने का संकेत है। मकर सक्रांति पर सूर्य नारायण के उत्तरायण प्रस्थान के बाद शरद ऋतु की समाप्ति होती है। हालांकि विश्व में बदले हुए मौसम ने अनेक प्रकार के गणित बिगाड़ दिये हैं पर सूर्य के अनुसार होने वाले परिवर्तनों का उस पर कोई प्रभाव नहीं है। एक बार सूर्य नारायण अगर उत्तरायण हुए तो सर्दी स्वतः अपनी उग्रता खो बैठती है। यह अलग बात है कि धीमे धीरे यह परिवर्ततन होता है। फिर अपने यहां तो होली तक सर्दी रहने की संभावना रहती है। पहले दीवाली के एक सप्ताह के अंदर स्वेटर पहनना शुरु करते थे तो होली के एक सप्ताह तक उनको ओढ़ने का क्रम चलता था। अब तो स्थिति यह है दीवाली के एक माह बाद तक मौसम गर्म रहता है और स्वेटर भी तब बाहर निकलता है जब कश्मीर में बर्फबारी की खबर आती है।
हमारी संस्कृति के अनुसार पर्वों का विभाजन मौसम के अनुसार ही होता है। इन पर्वो पर मन में उत्पन्न होने वाला उत्साह स्वप्रेरित होता है। सर्दी के बाद गर्मी और उसके बाद बरसात फिर सर्दी का बदलता क्रम देह में बदलाव के साथ ही प्रसन्नता प्रदान करता है। ऐसे में दीपावली, होली, रक्षाबंधन, रामनवमी, दशहरा, मकरसक्रांति और बसंतपंचमी के दिन अगर आदमी की संवेदनाऐं सुप्तावस्था में भी हों तब ही वायु की सुगंध उसे नासिका के माध्यम से जाग्रत करती है। यह अलग बात है कि इससे क्षणिक सुख मिलता है जिसे अनुभव करना केवल चेतनाशील लोगों का काम है।
हमारे देश में अब हालत बदल गये हैं। लोग आनंद लेने की जगह एंजायमेंट करना चाहते हैं जो स्वस्फूर्त नहीं बल्कि कोशिशों के बाद प्राप्त होता है। उसमें खर्च होता है और जिनके पास पैसा है वह उसके व्यय का आनंद लेना चाहते है। तय बाद है कि अंग्रेजी से आयातित यह शब्द लोगों का भाव भी अंग्रेजियत वाला भर देता है। ऐसे में बदलती हवाओं का स्पर्श भले ही उसकी देह के लिये सुखकर हो पर लोग अनुभूति कर नहीं पाते क्योंकि उनका दिमाग तो एंजॉजमेंट पाने में लगा है। याद रखने वाली बात यह है कि अमृत पीने की केवल वस्तु नहीं है बल्कि अनुभूति करने वाला विषय भी है। अगर श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित विज्ञान को समझें तो यह पता लगता है कि यज्ञ केवल द्रव्य मय नहीं बल्कि ज्ञानमय भी होता है। ज्ञानमय यज्ञ के अमृत की भौतिक उत्पति नहीं दिखती बल्कि उसकी अनुभूति करनाी पड़ती है यह तभी संभव है जब आप ऐसे अवसरों पर अपनी देह की सक्रियता से उसमें पैदा होने वाली ऊर्जा को अनुभव करें। यह महसूस करें कि बाह्य वतावररण में व्याप्त सुख आपके अंदर प्रविष्ट हो रहा है तभी वह अमृत बन सकता है वरना तो एक आम क्षणिक अनुभूति बनकर रह जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि आपकी संवदेनाओं की गहराई ही आपको मिलने वाले सुख की मात्रा तय करती है। यह बात योग साधकों से सीखी जा सकती है।
जब हम संवेदनाओं की बात करें तो वह आजकल लोगों में कम ही दिखती हैं। लोग अपनी इंद्रियों से व्यक्त हो रहे हैं पर ऐसा लगता है कि उथले हुए हैं। वह किसी को सुख क्या देंगे जबकि खुद लेना नहीं जानते। अक्सर अनेक बुद्धिजीवी हादसों पर समाज के संवेदनहीन होने का रोना रोते हैं। इस तरह रोना सरल बात है। हम यह कहते हैं कि लोग दूसरों के साथ हादसे पर अब रोते नहीं है पर हमारा सवाल यह है कि लोग अपने साथ होने वाले हादसों पर भी भला कहां ढंग से रो पाते है। उससे भी बड़ी बात यह कि लोग अपने लिये हादसों को खुद निमंत्रण देते दिखाई देते है।
यह निराशाजनक दृष्टिकोण नहीं है। योग और गीता साधकों के लिये आशा और निराशा से परे यह जीवन एक शोध का विषय है। इधर सर्दी में भी हमारा योग साधना का क्रम बराबर जारी रहा। सुबह कई बार ऐसा लगता है कि नींद से न उठें पर फिर लगता था कि अगर ऐसा नहीं किया तो फिर पूरे दिन का बंटाढार हो जायेगा। पूरे दिन की ऊर्जा का निर्माण करने के लिये यही समय हमारे पास होता है। इधर लोग हमारे बढ़ते पेट की तरफ इशारा करते हुए हंसते थे तो हमने सुबह उछलकूद वाला आसन किया। उसका प्रभाव यह हुआ है कि हमारे पेट को देखकर लोग यह नहीं कहते कि यह मोटा है। अभी हमें और भी वजन कम करना है। कम वजन से शरीर में तनाव कम होता है। योग साधना करने के बाद जब हम नहाधोकर गीता का अध्ययन करते हैं तो लगता है कि यही संसार एक बार हमारे लिये नवीन हो रहा है। सर्दियों में तेज आसन से देह में आने वाली गर्मी एक सुखद अहसास देती है। ऐसा लगता है कि जैसे हमने ठंड को हरा दिया है।
यह अलग बात है कि कुछ समय बाद वह फिर अपना रंग दिखाती है पर क्रम के टूटने के कारण इतनी भयावह नहीं लगती। बहरहाल हमारी बसंत पंचमी तो एक बार फिर दो घंटे के शारीरिक अभ्यास के बाद ही प्रारंभ होगीं पर एक बात है कि बसंत की वायु हमारे देह को स्पर्श कर जो आंनद देगी उसका बयान शब्दों में व्यक्त कठिन होगा। अगर हम करें भी तो इसे समझेगा कौन? असंवदेनशील समाज में किसी ऐसे आदमी को ढूंढना कठिन होता है जो सुख को समझ सके। हालाकि यह कहना कि पूरा समाज ऐसा है गलत होगा। उद्यानों में प्रातः नियमित रूप से धूमने वालों को देखें तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिनके इस तरह का प्रयास एक ऐसी क्रिया है जिसके लिये वह अधिक सोचते नहीं है। बाबा रामदेव की वजह से योग साधना का प्रचार बढ़ा है पार्कों में लोगों के झुड जब अभ्यास करते दिखते हैं तो एक सुखद अनुभूति होती है उनको सुबह पार्क जाना है तो बस जाना है। उनका क्रम नही टूटता और यही उनकी शक्ति का कारण भी बनता है। इस संसार में हम चाहे लाख प्रपंच कर लें पर हम तभी तक उनमें टिके रह सकते हैं जब तक हमारी शारीरिक शक्ति साथ देती है। इसलिये यह जरूरी है कि पहला काम अपने अंदर ऊर्जा संचय का करें बाकी तो सब चलता रहता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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