पहनावा अच्छा मुंह बंद सभी भद्र, जब बोलें शब्द निकले अभद्र।
‘दीपकबापू डटे संस्कार पर बहस में, कान काटें चले जीभ का वज्र।।
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असल से ज्यादा नकल जचे, अकलबंद पांव नशे में नचे।
‘दीपकबापू’ तस्वीर में बने शेर, बकरी के शिकार से बचे।।
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फरिश्ते दिखेंगे सुबह से शाम, रात हाथ में होता उनके जाम।
‘दीपकबापू’ दोगले फन में माहिर, सभी मजे में होकर बदनाम।।
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जाये वहीं आदमी देखे जहां माल, पक्षी जैसी बुद्धि देखे न जाल।
दीपकबापू धन की चाहत में फंसे, भूख से डराये खाने का थाल।।
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सौदागर रुपहले पर्दे सजाते, प्रायोजित जाल में दर्शक फसाते।
‘दीपकबापू’ बेजार बाज़ार में, अपने ख्वाब भूल कर लोग आते।।
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जिनके पद कभी धरा पर नहीं पड़ते, आकाश की सोच लेकर लड़ते।
दीपकबापू धोखे से हो गये सफल, अक्ल में अकड़ का ताला जड़ते।।
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राजपथ पर विचरने का विचार, इंसानी दिल को बहुत लुभाता।
पांव फटे माथे पर बहे पसीना, ‘दीपकबापू’ इरादों को चुभाता।।
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चलते चलते थका देता काजपथ, दिल में नहीं आता कभी राजपथ।
‘दीपकबापू डरें बेलगाम चौपायों से, लोहागाड़ी हो या लकड़ी का रथ।।
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लोहे के सामान की दिखाते तस्वीर, प्रचारित करें इंसान की तकदीर।
दीपकबापू योग से दूर भोग के पास, नृत्य कर रहे कागज के वीर।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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