अमन में रहते लोभी जंग नहीं करते, मुफ्तखोर कायर कभी तंग नहीं भरते।
‘दीपकबापू’ अस्त्र शस्त्र का बोझ उठाते, मौके पर वीरता का रंग नहीं भरते।।
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पटकथा से पर्दे पर चल रहे लोग, सुबह सिखाये त्याग शाम विज्ञापन से भोग।
‘दीपकबापू’ योग के नारे लगा रहे जोर से, पर्चे से याद करा रहे ढेर सारे रोग।।
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रौशनी में नहाते वह अंधेरा न जाने, लूट के हकदार कभी रक्षा का घेरा न जाने।
‘दीपकबापू’ त्रासदी के खेल का मजा लेते, बदन से बहे धारा पर खून तेरा न माने ।।
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फरिश्ते कभी अपनी तस्वीर नहीं लगाते, पुजवाने वाले कभी तकदीर नहीं जगाते।
‘दीपकबापू’ ईमान की छाप लगाने वाले, दुआओं का सौदा कर पीड़ा नहीं भगाते।।
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राजा कहे बंजारा सुखी बंजारा कहे राजा सुखी, अपने अपने हाल हैं पर सब दुःखी।
चाहत की चिंगारी से जलाते चिंता की आग, ‘दीपकबापू’ अपने ही ताप होते दुःखी।।
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अपनी आंखे स्वयं की आदतों से फेरी है, परायी कमियों ने उनकी रौशनी घेरी है।
‘दीपकबापू’ जंग कराकर निकलते अमन के लिये, नाकामी छिपायें कामयाबी कहें मेरी है।।
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कुदरती दुनियां में तरह तरह के रंग हैं, पसंद नापसंद में जूझती इंसानी नज़रें तंग है।
‘दीपकबापू’ अपनी सोच से आगे बढ़ते नहीं, अक्लमंद कहलाये जो उधार की राय के संग हैं।।
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भीड़ लगाकर इंसान ढूंढता अपनी पहचान, दूसरे को गिराकर बनाता अपनी शान।
‘दीपकबापू’ वैभव पास लाये स्वयं से हुए दूर,अनमने घूमते अंदर है कि बाहर जान।।
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दौलतमंदों के खड़े किये गये जिंदा प्यादे हैं, जिनके गरीबी दूर करने के वादे हैं।
‘दीपकबापू’ जगह जगह करते आदर्श की बात, दिल में संपदा लूटने के इरादे हैं।।
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प्रेम शब्द सब जपें पर रस जाने नहीं, मतलब निकले तब संबंध कभी माने नहीं।
‘दीपकबापू’ धनिकों की चाकरी पर तत्पर, मजबूरी से लड़ने की कोई ठाने नहीं।।
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