अग्नि के पुंज में पके
शब्दों के दानों से बनी खिचड़ी जैसी
सज गयी हो
पर तुम मेरी कविता हो
मेरे ख्यालों की उथल पुथल से प्रवाहित
भाव की नदिया में लहरों की तरह
बहते हुए शब्दों में तैरती
नाव की तरह लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो
मेरे ख्यालों के पर्वत पर
खड़े शब्द फैले हैं शब्द, चट्टानों की तरह
उकेर दिया जो उनको कागज पर
तो एक तस्वीर की तरह लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो
न छंद है
न कोई बंध है
इंसानी जज्बात किसी के नहीं पाबंद हैं
नहीं रोक सकता
उसे अपने अंदर
कोशिश की तो
बन जाता है कीचड़ का समंदर
गम हो या खुशी के शब्द
मन की कैद से बाहर निकल आते हैं
और अपना जलसा सजाते हैं
तुम तब चांदनी की तरह लगती है
पर तुम मेरी कविता हो
किसी को है पसंद
किसी को नापसंद
कभी हंसी होती है कभी दर्द होता है
शब्द तो बनाते वही चेहरा
जैसा अंतर्मन का भाव होता है
कोई तारीफ करे या
कोई बिफर जाये
पर तुम बेपरवाह हवा की तरह
बहती लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो
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2 comments:
bahut hi sundar rachana . badhai ji
बहुत सुंदर लिखा...
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