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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Thursday, January 22, 2009

बेपरवाह हवा की तरह-कविता

मेरे मन की हलचल से हुए घर्षण से पैदा
अग्नि के पुंज में पके
शब्दों के दानों से बनी खिचड़ी जैसी
सज गयी हो
पर तुम मेरी कविता हो

मेरे ख्यालों की उथल पुथल से प्रवाहित
भाव की नदिया में लहरों की तरह
बहते हुए शब्दों में तैरती
नाव की तरह लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो

मेरे ख्यालों के पर्वत पर
खड़े शब्द फैले हैं शब्द, चट्टानों की तरह
उकेर दिया जो उनको कागज पर
तो एक तस्वीर की तरह लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो

न छंद है
न कोई बंध है
इंसानी जज्बात किसी के नहीं पाबंद हैं
नहीं रोक सकता
उसे अपने अंदर
कोशिश की तो
बन जाता है कीचड़ का समंदर
गम हो या खुशी के शब्द
मन की कैद से बाहर निकल आते हैं
और अपना जलसा सजाते हैं
तुम तब चांदनी की तरह लगती है
पर तुम मेरी कविता हो

किसी को है पसंद
किसी को नापसंद
कभी हंसी होती है कभी दर्द होता है
शब्द तो बनाते वही चेहरा
जैसा अंतर्मन का भाव होता है
कोई तारीफ करे या
कोई बिफर जाये
पर तुम बेपरवाह हवा की तरह
बहती लगती हो
पर तुम मेरी कविता हो

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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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2 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

bahut hi sundar rachana . badhai ji

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर लिखा...

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