वह उसका इतिहास बताते हैं
सुनने वाले निहारते हुए
स्वयं भी पत्थर हो जाते हैं
पता नहीं इतिहास पर होता शक उनको
या पत्थर पढ़ने लग जाते हैं
बिचारे इंसान
इतिहास की सोच के पत्थर
अपने सिर पर क्यों ढोये जाते हैं
...................................
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान- पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment