वही बाजार में बेच रहे हैं खुशी के महंगे सपने।
मदारी की तरह कहीं नारी पुरुष तो
कही अमीर गरीब को सांप नेवले की तरह लड़ाकर
खुशहाली का ख्वाब चादर से पांव बढ़ाकर
भीड़ को बहला रहे हैं
किसी को खून बहता नहीं
पर वह अपने तरीके से जख्म सहला रहे हैं
न आग है न अंगारा
लोगों के जज्बात लगते हैं कंपने।
धुंआ हो गयी है जमाने की सोच
झूठ की आकर्षक चादर सभी को भाती है
सच कड़वा है
सामने न आये इसलिये
सब लगे हैं उसे ढंकने
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