पर जमाना बदल दे, लफ्ज ही ऐसा सैलाब लाते।।
किसी के लफ्ज पर ही तो तलवारें म्यान से निकलीं
खूनी जंग में गूंजती चीखें, कान गीत को तरस जाते।।
किताबों ने आदमी को गुलाम बनाकर रख दिया
लफ्जों की लड़ाई में लफ्ज ही तलवार बन पाते।।
चीखते हुए तलवार घुमाओ या कलम पर करो भरोसा
मरा आदमी किस काम का, लफ्ज उसे गुलाम बनाते।।
कहें दीपक बापू दूसरों के लिखे पर चलते रहे हो
गुर्राने से क्या फायदा, क्यों नहीं मतलब के शब्द रच पाते।।
हथियार फैंकने और मारने वाले बहुत मिल जायेंगे
उनको रास्ता बताने के लिये, क्यों नहीं गीत गजल सजाते।।
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1 comment:
आप की शायिरी के मिज़ाज की शान मे कुछ ...
मैं ’ बुद्धिजीवी ’ हूं !
कलम उठाऊं या तलवार
कौन सी क्रान्ति कर लून्गा ?
मैं भी व्यवस्था का अन्ग
अपनी ही बचा रहा हूं
बच जाये बहुत है !
तो सत्ता की ?
क्या तो मार दूंगा.......
..................................या क्या उखाड लूंगा ??
(अर्शा पहले ’इमरजेन्सी’ के समय लिखी थी . कहीं छप भी गयी थी ! :)..........)
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