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Friday, April 3, 2009

न्यूड होटल को हिंदी में क्या कहें? वस्त्रहीन भोजनालय! (हास्य-व्यंग्य)

‘न्यूड होटल’ को हिंदी में क्या कहें? वस्त्रहीन भोजनालय! हमें स्वयं ही नहीं जम रहा। वस्त्रों का भोजन से क्या संबंध? अगर कहीं बाहर भोजन करने जाते हैं तो सजधज कर जाते हैं। खासतौर से नारियां किसी शादी विवाह में दावत में जाती हैं तो खाने की कम इस बात की चिंता अधिक करती हैं कि वह वहां मौजूद लोगों को सुंदर लगें-उससे भी अधिक यह कि वह एक आधुनिक युवती लगें। कुछ ही पुरुष ऐसे होते हैं जो इन अवसर पर अपने पहनने से अधिक खाने की फिक्र करते हैं पर अधिकतर अपने आपको हीरो की तरह दिखना चाहते हैं।

अब इस देश में भी आगे पीछे न्यूड होटल का युग आयेगा। हुआ यूं कि इंटरनेट पर एक समाचार पढ़ने को मिला जिसमें एक पश्चिमी देश में ‘न्यूड होटल’ खुलने की जानकारी थी। उसके अनुसार होटल प्रबंधन ने बताया कि वहां अंदर प्रवेश होने वाले ग्राहक को सारे कपड़े प्रवेश द्वार पर उतारकर निर्धारित जगह पर रखने होंगे। उसके बाद ही वह खाने पीने के लिये अंदर प्रवेश कर सकता है। तय बात है कि जब ग्राहक वस्त्रहीन होगा तो वहां पर कर्मचारी कोई हीरो जैसे कपड़े नहीं पहने होंगे। प्रबंधन इस बात की गारंटी ले रहा है कि वहां कोई भी अभद्र किस्म की वारदात नहीं होगी।

आज वहां होटल खुल रहा है कल भारत में भी इसकी संभावना बनेगी। पश्चिम की रीति नीति पर चलना हमारे देश में स्वतंत्रता का प्रमाण माना जाता है। तय बात है कि किसी दिन ऐसा समाचार आयेगा कि अमुक जगह ‘न्यूड होटल’ खुला रहा है। उसके बाद क्या होगा? हमारे देश में बुद्धिजीवियों के दोनों वर्ग इसके लिये तैयार हो जायें। तीसरा वर्ग तो खैर हास्य कवितायें या व्यंग्य लिखकर अपना काम चला लेगा पर विकासवादी और परंपरावादियों को अभी से ही अपने तर्क तैयार कर लेना चाहिये। हम जैसे आम लोगों को इस बहस को देखने की तैयारी कर लेना चाहिये। कभी यहां पब में नारियों के जाने को लेकर झगड़ा होता है तो उसकी कसर वैलंटाईन डे पर नारी स्वतंत्रता दिवस मनाकर पूरी की जाती है। शाब्दिक शस्त्रार्थ जो कि मनोरंजक होता है पढ़ने और देखने में अच्छा लगता है। पहली बात तो यह है कि पब में नारियों के प्रवेश पर चिढ़ने वाले ‘न्यूड होटल’ की खबर सुनकर ही उत्तेजित हो जायेंगे।

उनकी यह उत्तेजना उनके विकासवादी मित्रों को भी इस बात के लिये प्रेरित करेगी कि वह अपनी तरफ से कुछ कहें। जब पब में महिलाओं के प्रवेश पर बहस चली थी तो विकासवादी इस बात को भूल गये थे कि वहां शराब पी जाती है, बकौल फिल्मी संवाद ‘दारु लीवर को खराब करती है’। परंपरावादियों ने भी अपने तमाम तरह के तर्क दिये। बहरहाल यह अच्छा रहा कि वैलंटाईन डे के बाद यह मामला शांत हो गया। यह अलग बात है कि कुछ लोगों ने ऐसी जानकारी भी दी कि पब पर हुआ उधम कुछ प्रायोजित सा लग रहा था। जिस तरह यह मामला थमा उससे तो लगता है कि कहीं न कहीं इस देश में बहस और चर्चा के लिये मुद्दे बनाने वाली कोई स्वयं सेवी संस्था भी सक्रिय है जो निस्वार्थ भाव से लोगों का मन लगाने के लिये ऐसे विवाद प्रायोजित करती है।
मगर यह ‘न्यूड होटल’! इस पर किस तरह बहस चलेगी। हमारे देश के नर नारी तो सज संवर कर इसलिये ही बाहर निकलते हैं कि कोई उनको देखकर प्रभावित हो। कुछ जवां दिल तेा होटल जाते हैं इसलिये हैं कि ताकि उनके कपड़े देखकर कोई उनके मोहपाश या प्रेमपाश में पड़ जाये।

मगर ‘न्यूड होटल’! सारे किये धराये पर पानी फेर देगा! अगर किसी शहर में ऐसा होटल खुल गया तो आधुनिक लोगों को जाना ही पड़ेगा। न गये तो विकासवादी बुद्धिजीवी कहेंगे ‘पिछड़ा है’। गये तो फिर बिना कपड़े कदर ही क्या रह जायेगी? आखिरी फैसला तो जाने का ही होगा। मगर इससे पहले जो विवाद होगा उसका क्या? परंपरावादियो के पास तो बस एक ही रटा रटाया तर्क है कि ‘हमारी संस्कृति के विरुद्ध है’। मगर विकास वादी क्या करेंगे। स्वातंत्रय समर्थक इस पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे? कपड़ों के रग होते हैं-’काला,पीला,नीला,हरा,सफेद और गुलाबी। ‘न्यूड होटल’ यहां भी प्रसिद्ध होंगे पर इसके समर्थन के लिये वह कौनसे रंग की कौनसी चीज चुनकर परंपरवादियों को भेजेंगे जैसे कि पूर्व में वैलंटाईन डे के अवसर पर विरोधस्वरूप गुलाबी रंग का वस्त्र चुना था। ‘न्यूड होटल के लिये कौनसा कलर प्रतीक के रूप में होगा क्योंकि वहां तो कोई वस्त्र ही नहीं है। वस्त्रहीनता उस होटल की प्रतीक होगी। वस्त्रहीनता यानि रंगहीनता की स्थिति है।
वैसे देखा जाये तो मनुष्य प्रारंभ में निर्वस्त्र ही रहता था। अब भी अनेक ऐसे स्थान हैं जहां आदिवासी नाममात्र के वस्त्र पहनते हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि उस समय मनुष्य के शरीर पर वैसे ही बड़े बाल थे जैसे आज वानर प्रजाति के जीवों पर दिखते हैं पर कपड़े पहनने की वजह से वह झड़ते गये। अब तेा हालत यह है कि मौसम के अनुसार मनुष्य कपड़ों में बदलाव करता है। अगर वह ऐसा न करे तो उसका जीवनयापन कठिन हो जाये। सच बात तो यह है कि वस्त्र के बिना आदमी अपने आपको नहीं सुहाता है दूसरे को क्या सुहायेगा। वैसे तो कोई कोई संत वस्त्र नहीं पहनते पर भक्त उसे स्वीकार कर लेते हैं। यही भक्त किसी आम आदमी का नंगा घूमना नहीं सहन कर सकते। फिर ऐसे होटलों में वस्त्र त्याग करने वाले साधु तो जाने से रहे।

ऐसे में इन होटलों में कोई नहीं जायेगा यह कहना भी कठिन है। इस देश में पश्चिम का अंधानुकरण करना एक रोग की तरह हो गया है। ऐसे मेें बाजार के प्रचारकों ने अपनी कला से कहीं इसमें आम आदमी के अंदर प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता का प्रतीक बना लिया तो जाने वालों की भी कमी नहीं होगी। यह अलग बात है कि लोग घर से संज संवरकर निकलेंगे और वहां जाकर वस्त्रों का त्याग कर देंगे। हां, पश्चिम में लोग सहज है पर यहां असहज लोग अधिक हैं सो वह अंदर वस्त्र त्याग कर जायेंगे पर कुविचार नहीं। बाहर आकर एक दूसरे के अंगों का नाम ले लेकर उन पर व्यंग्य कसेंगे। फिर देखना झगड़े इसी बात पर होंगे कि अमुक ने अमुक के अंग पर यह टिप्पणी की इसलिये झगड़ा हो गया। यह अलग बात है कि इन झगड़ों से ऐसे ही होटलों को प्रचार भी खूब मिलेगा।
मगर यह न्यूड होटल! इसे हिंदी में क्या कहें। इसके लिये जो वास्तविक शब्द हैं उसे हम अपनी इस आलीशान साहित्यक रचना में नहीं लिख सकते। हम सभी लोगों से कहते हैं कि बुरे अर्थ वाले भाव हों तो भी उसके लिये शालीन शब्द प्रयोग में लाओ। इसलिये हम तो यही कहेंगे कि वस्त्रहीन भोजनालय।
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1 comment:

RAJ SINH said...

प्रिय दीपक ’
पता नहीं ये बात खबर कैसे बन गयी ?
यह तो अर्से से है . यहां तक की लम्बे समुद्रतट , भोजनालय और होटल एक साथ . वस्त्रहीन होने के बाद ही प्रवेष .वहां रहने तक . फ़िर जाते समय सामान्य .

कौतुहल वश , केलिफ़ोर्निया मे , ऐसी ही एक जगह मैं भी गुज़ार आया हूं . इसके एक फ़ल्सफ़े पर आपने अपने अन्दाज़ मे कह ही दिया है . विश्वास करिये सिर्फ़ नग्नता के चलते यौन प्रवेग तो मैंने नहीं महसूस की , ना किसी मे असामान्य दिखी . यही जानने गया भी था . मह्सूस तो यह हुआ कि ऐसी सामान्य जगहें जो चलन मे हैं वहां उल्टे ज्यादा यौन उद्दीपन मह्सूस होता है .
हमारे वश्त्र ही हमे दूसरों से कितना अलग करते हैं ,
बना देते हैं ? ( अक्सर क्रितिमता से ) . उसके बिना कितनी सामान्यता का अहसास होता है .
हां फ़िर भी , रन्ग रूप , कद काठी , उम्र आदि तो बने ही रहते हैं , जैसे सामान्य . मेरी एक दिक्कत यह थी कि अमेरिकनों ( गोरे काले सभी ) के बीच एक भारतीय , मैं कैसा लगूंगा और दूसरों का व्यवहार कैसा होगा ? सुखद आस्चर्य यह था कि उनके मन मे अविश्वसनीय कौतुहल वैसा ही देखा , बहुत स्नेह्मय , दोस्ताना , जैसे मेरे मन मे था . बहुत सारे दुनियां के अलग जगहों के थे और अन्ग्रेजी नहीं बोलते थे . काफ़ी जापानी थे . शायद उनमे से बहुत धनी भी रहे हों या गरीब ही ( वहां के हिसाब से ) ,सिर्फ़ मैं अन्दाज़ा ही लगा सकता था . हां ग्यान और सोच का मान्वीय द्रिस्तिकोण भी दिखा और बेफ़िक्री भी .
कुछ अन्तर चर्चा मे यह देख आस्चर्य हुआ कि कुछ तो खजुराहो और चारवाकीय दर्शन पर ,मुझसे तो ज्यादा ही जानते थे . व्यक्त भी किया कि ऐसे देश मे वर्तमान ’ नैतिक ’ जीवन शैली कैसे रास्ता पार कर गयी . ( उन्हें हमारे ही नहीं दुनियां के बहुत सारे जीवन शैलियों के ’ बाह्य आवरण ’ के बारे मे पता है .)
विश्वास करें , वहां जैसा परस्पर शांत सह अस्तित्व ’बाहर’ नही मिलता .

सोचने का विषय तो है ही ’ नग्नता ’ !! :)

भले जीने के दिन दूर हों . या भारत और दुनिया के ना जाने कितने मज़्बूर हों नग्न रहने के लिये !

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