अब इसे इस तरह कह सकते हैं कि 12 बजकर 34 मिनट 56 सैकंड तारीख सात माह 8 वर्ष 9। इस कथित एतिहासिक समय को खूब देखने और सुनने का अवसर मिला। एक लड़की बता रही थी कि उसके पास एक कोई एस.एम.एस आया है। इधर एक लड़का ओरकुट पर भी इसी प्रकार की विषय सामग्री पढ़े होेन की बात कह रहा था। हमने भी इधर उधर पढ़ा और देखा। कमाल है क्या गजब है कि बाजार को हर रोज कोई न कोई अवसर मिल ही नहीं जाता है।
खैर, इस समय में क्या खास था यह समझ में नहीं आता। याद रखिये गिनती के दस अंक होते हैं या यूं कहें कि गिनती 0 से 9 तक होती है।
कमबख्त यह जीरो भी अजीब है। अगर आंकड़े के पीछे लगे तो संख्या की ताकत बढ़ा देता है और पहले लगे तो कोई फायदा नहीं देता। अगर बाजार का बस हो तो वह एक को जीरो लगाकर एक करोड़ बना दे पर अगर उसे लगे कि इस जीरो से खतरा है या कोई उम्मीद नहीं है तो उसे भुला दे। इतना ही गणित की गिनती से ही जीरो निकालकर लोगों को भरमा दे। तारीखों और समय की उलटपुलट का सवाल है। पहले समय आना चाहिये या तारीख! बाजार ने अपनी सुविधा से समय को पहले चुना। जरूरत पड़ेगी तो तारीख को पहले चुनेगा।
फिर एक मजे की चीज है कि यह सब अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक है। यही बाजार जब हिन्दी संवत् में देखेगा तो शायद उसे भुनाने का भी प्रयास करे। इतनी सी छोटी बातों को बड़े स्तर पर प्रचार करने का आशय यह है कि बाजार अब बहुत ताकतवर हो चुका है। दूरसंचार से जुड़े व्यवसायियों के लिये छोटे मोटे अवसर भी कमाने का अवसर बनते जा रहे हैं। इधर देश टीवी चैनलों पर नित प्रतिदिन दूध, घी, ,खोवे तथा अन्य वस्तुओं में मिलावट की जानकारी। असली जैसे लगने वाले नकली नोटों का प्रचलने बढ़ने से प्रशासन की चिंताओं की चर्चा देखकर दिल की धड़कने बढ़ने लगती हैं।
याद रखिये यह अपराध भी उसी विकास यात्रा पर आ रहे हैं जहां अपनी अर्थव्यवस्था के चलने का दावा देश के आर्थिक विशेषज्ञ करते हैं। उपभोक्ता प्रवृत्तियों का बढ़ाना बाजार के लिये अच्छा संकेत हो सकता है पर ऐसे अपराधों मेें-जिनसे पूरा समाज अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से प्रभावित होता है-वृद्धि भी भयानक संकेत दे रही है। कभी कभी तो लगता है कि ऐसी छोटी बातों का प्रचार कर हम किसे भरमा रहे हैं? इस तरह अपने को खुश करना चाहते हैं या विदेशों को यह बताना चाहते हैं कि अब आधुनिक सभ्य समाज का एक अंग बन गये हैं।
कभी कभी मन निराश हो जाता है। प्रचार माध्यमों पर प्रस्तुत समाचारों, धारावाहिकों और अन्य कार्यक्रमों को देखते हैं तो एक आकर्षक समाज दिखता है पर जहां हमारे पांव खड़े हैं वहां उसकी चमक एक सपना दिखाई देती है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हम समाज की मूल धारा से अलग ही लेखक हैं क्योंकि जो दूसरे लेखक लिख रहे हैं उससे हमारी सोच अलग दिखती है। हालांकि लीक से हटकर यह एक अच्छी बात हो सकती है पर विषय सामग्री के तत्व निरंतर अन्य लेखकों से विपरीत दिखने लगें तो स्वयं की सोच पर भी संदेह हो जाता है। हां क्यों न होगा! सभी गिनती एक से नौ तक ही कर रहे हैं और हमारा स्मृति कोष यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वह 0 से नौ तक की नहीं होती और यह भी कि लोगों को चमत्कृत करने के लिये जीरो का होना जरूरी था। वैसे इस प्रचार को अधिक भाव शायद इसलिये मिला भी नहीं।
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1 comment:
अपने हिसाब से गुणा भाग कर हँसते रहिये, व्यंग्य कसते रहिये.
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