अंततः अयोध्या में राम जन्मभूमि पर चल रहे मुकदमे पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला बहुप्रतीक्षित फैसला आ ही गया। तीन जजों की खण्डपीठ ने जो फैसला दिया वह आठ हज़ार पृष्ठों का है। इसका मतलब यह है कि इस फैसले में लिये हर तरह के पहलू पर विचार करने के साथ ही हर साक्ष्य का परीक्षण भी किया गया होगा। तीनों माननीय न्यायाधीशों ने निर्णय लिखने में बहुत परिश्रम करने के साथ ही अपने विवेक का पूरा उपयोग किया इस बात में कोई संदेह नहीं है। फैसले से प्रभावित संबंधित पक्ष अपने अपने हिसाब से इसके अच्छे और बुरे होने पर विचार कर आगे की कार्यवाही करेंगे क्योंकि अभी सवौच्च न्यायालय का भी दरवाजा बाकी है। यह अलग बात है कि सभी अगर इस फैसले से संतुष्ट हो गये तो उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार ही काम करेंगे।
इस फैसले से पहले जिस तरह देश में शांति की अपीलें हुईं और बाद में भी उनका दौर जारी है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि धार्मिक संवेदशीलता के मामले में हमारा देश शायद पूरे विश्व में एक उदाहरण है। सुनने में तो यह भी आया है कि इस ज़मीन पर विवाद चार सौ वर्ष से अधिक पुराना है। साठ साल से अब अदालत में यह मामला चल रहा था। पता नहंी इस दौरान कितने जज़ बदले तो कई रिटायर हो चुके होंगे। प्रकृति का नियम कहें या सर्वशक्तिमान की लीला जिसके हाथ से जो काम होना नियत है उसी के हाथ से होता है।
टीवी चैनलों के अनुसार तीनों जजों ने एक स्वर में कहा-‘रामलला की मूर्तियां यथा स्थान पर ही रहेंगी।’
अलबत्ता विवादित जमीन को संबंधित पक्षों में तीन भागों में बांटने का निर्णय दिया गया है। इस निर्णय के साथ ही कुछ अन्य विषयों पर भी माननीय न्यायाधीशों के निर्णय बहुमत से हुए हैं पर मूर्तियां न हटाने का फैसला सर्वसम्मत होना अत्यंत महत्वपूर्ण तो है ही, इस विवाद को पटाक्षेप करने में भी सहायक होगा।
चूंकि यह फैसला सर्वसम्मत है इसलिये अगर सवौच्च न्यायालय में यह मामला जाता है तो वहां भी यकीनन न्यायाधीश इस पर गौर जरूर फरमायेंगे.ऐसा पिछले मामलों में देखा गया है यह बात कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं। वैसे ऐसे मामलों पर कानूनी विशेषज्ञ ही अधिक बता सकते हैं पर इतना तय है कि अब अगर दोनों पक्ष न्यायालयों का इशारा समझ कर आपस में समझ से एकमत होकर देशहित में कोई निर्णय लें तो बहुत अच्छा होगा।
निर्मोही अखाड़ा एक निजी धार्मिक संस्था है और उसका इस मामले में शामिल होना इस बात का प्रमाण है कि अंततः यह विवाद निजी व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच था जिसे भगवान श्रीराम के नाम पर संवदेनशील बनाकर पूरे देश में प्रचारित किया गया। बरसों से कुछ लोग दावा करते हैं कि भगवान श्री राम के बारे में कहा जा रहा है कि वह हम भारतीयों के लिये आस्था का विषय है। ऐसा लगता है कि जैसे भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र को मंदिरों के इर्दगिर्द समेटा जा रहा है। सच बात तो यह है कि भगवान श्रीराम हमारे न केवल आराध्य देव हैं बल्कि अध्यात्मिक पुरुष भी हैं जिनका चरित्र मर्यादा के साथ जीवन जीना सिखाता है। यह कला बिना अध्यात्मिक ज्ञान के नहीं आती। इसके लिये दो मार्ग हैं-एक तो यह कि योग्य गुरु मिल जाये या फिर ऐसे इष्ट का स्मरण किया जाये जिसमें योग्य गुरु जैसे गुण हों। उनके स्मरण से भी अपने अंदर वह गुण आने लगते हैं। एकलव्य ने गुरु द्रोण की प्रतिमा को ही गुरु मान लिया और धनुर्विद्या में महारथ हासिल की। इसलिये भगवान श्री राम का हृदय से स्मरण कर उन जैसे सभी नहीं तो आंशिक रूप से कुछ गुण अपने अंदर लाये जा सकते हैं। बाहरी रूप से नाम लेकर या दिखाने की पूजा करने से आस्था एक ढोंग बनकर रह जाती है। हम जब धर्म की बात करते हैं तो याद रखना चाहिये कि उसका आधार कर्मकांड नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान है और भगवान श्री राम उसके एक आधार स्तंभ है। हम जब उनमें आस्था का दावा करते हुए वैचारिक रूप संकुचित होते हैं तब वास्तव में हम कहीं न कहीं अपने हृदय को ही धोखा देते हैं।
मंदिरों में जाना कुछ लोगों को फालतू बात लगती है पर वहां जाकर अगर अपने अंदर शांति का अनुभव किया जाये तब इस बात का लगता है कि
मन की मलिनता को निकालना भी आवश्यक है। दरअसल इससे ध्यान के लाभ होता है। अगर कोई व्यक्ति घर में ही ध्यान लगाने लगे तो उससे बहुत लाभ होता है पर निरंकार के प्रति अपना भाव एकदम लगाना आसान नहीं होता इसलिये ही मूर्तियों के माध्यम से यह काम किया जा सकता है। यही ध्यान अध्यात्मिक ज्ञान सुनने और समझने में सहायक होता है और तब जीवन के प्रति नज़रिया ही बदल जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि मंदिर और मूर्तियों का महत्व भी तब है जब उनसे अध्यात्मिक शांति मिले। बहरहाल इस फैसले से देश में राहत अनुभव की गयी यह खुशी की बात है।
------------------------------ कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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