भारत स्वाभिमान यात्रा करते करते बाबा रामदेव अब ऐसे मोड़ पर आ गये हैं जहां इतिहास अपनी कोई नई पारी खेलने के लिये तैयार खड़ा दिखता है। उन पर लिखने और बोलने वाले बहुत हैं पर उनका दायरा बाबा के ‘सुधार आंदोलन’ के विरोध या समर्थन तक ही सीमित है। बाबा के समर्थक और भक्त बहुत होंगे पर सच्चे अनुयायी कितने हैं, इसका सही अनुमान कोई नहीं कर पाया। बाबा के प्रशंसक उनके शिष्यों के अलावा दूसरे ज्ञानी भी हो सकते हैं इसका आभास भी किसी को नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि बाबा रामदेव के सभी प्रशंसक उनके शिष्य हों पर इतना तय है कि उनके कार्यक्रम के प्रति सकारात्मक भाव इस देश के अधिकांश बौद्धिक वर्ग में है। हमारी मुख्य चर्चा का विषय यह है कि बाबा रामदेव की योग शिक्षा की प्रशंसा करने वाले कुछ लोगों को उनकी इतर गतिविधियां पंसद नहीं आ रही हैं और वह उनको ऐसा या वैसा न करने की शिक्षा देते हुए बयान दे रहे हैं तो इधर उनके प्रशंसक भी केवल ‘आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं’ का नारे लगाते हुए उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ज्योति प्रज्जवलित किये हुए हैं। इन सभी के बीच स्वामी रामदेव के व्यक्त्तिव का पढ़ने का प्रयास कोई नहीं कर रहा जो कि जरूरी है।
स्वामी रामदेव के आंदोलन के समर्थन या विरोध से अधिक महत्वपूर्ण बात हमारे नजरिये से यह है कि इससे देश में लोगों के अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण होना चाहिए। अगर उनका यह अभियान ऐसा लाभ देश को देता है तो प्रत्यक्ष उससे हम लाभान्वित न भी हों पर इसकी प्रशंसा करेंगे। मूल बात यह है कि जब हम पूरे समाज के हित की बात सोचते हैं तो हमारी न केवल शक्ति बढ़ती है बल्कि स्वयं अपना हित भी होता है। जब हम केवल अपने हित पर ही अपना ध्यान केंद्रित करते हैं तो शक्ति और चिंतन सिमट जाता है। आजकल मनुष्य का खानपान और रहनसहन ऐसा हो गया है कि उसके अंदर चेतना और कर्म शक्ति का निर्माण वैसे भी सीमित मात्रा में होता है। ऐसे में योग साधना ही एकमात्र उपाय है जिससे कोई मनुष्य अपना सामान्य स्तर प्राप्त कर सकता है वरना तो वह भेड़ों की तरह हालतों के चाबुक खाकर भटकता रहे।
अब बात करें सीधी! जो लोग योग साधना करने और न करने वालों के बीच का देख पायें या समझ पायें हों वही अगर स्वामी रामदेव के कर्म पर टिप्पणियां करें तो बात समझ में आये। दो फिल्मी हीरो बाबा रामदेव के आंदोलन का विरोध कर रहे हैं। अगर हम उनके विरोध का विश्लेषण करें तो शायद बात रास्ते से भटक जायेगी पर यह बताना जरूरी है कि उन दोनों में से कोई योग साधना की प्रक्रिया और साधक की शक्ति को नहीं जानता।
एक कह रहा है कि ‘बाबा रामदेव को अपने काम से काम रखना चाहिए।’
दूसरा कह रहा है कि ‘स्वामी रामदेव को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की बजाय अपने भक्तों को इससे बचने की सलाह देना चाहिए।’’
कुछ समय पहले जब अन्ना हजारे जी के आंदोलन के समय इन्हीं अभिनेताओं ने उनका समर्थन किया था और अब उनका यह रुख उनको संदेहास्पद बना देता है। इस पर हम शायद टिप्पणी नहीं करते पर यह दोनो उस ं बाज़ार और प्रचार तंत्र के मुखपत्र की तरह पेश आ रहे हैं जो भारतीय अध्यात्म से घबड़ाया रहता है। उसमें उसे कट्टरत्व की बू आने लगती है। इधर अन्ना हजारे की कथित सिविल सोसाइटी ने भी बाबा रामदेव को सलाह दे डाली कि वह अपने आंदोलन से धार्मिक तत्वों को दूर रखें।
ऐसे में यह सवाल उठाता है कि विश्व का बाज़ार तथा प्रचारतंत्र-हम यहां मानकर चल रहे हैं कि अब आर्थिक उदारीकरण के चलते सारे विश्व के आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक शिखर पुरुष संगठित होकर काम करते हैं-कहीं दो भागों मे बंट तो नहीं गया है।
वैसे तो किसी आम लेखक की औकात नहीं है कि वह इतने बड़े आंदोलनों के शिखर पुरुषों पर टिप्पणी करे पर ब्लाग लिखने वालों के पास अपनी भड़ास निकालने का अवसर आता है तो वह चूकते नहीं है। जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने हिन्दी ब्लाग लेखकों को अनदेखा किया उससे यह बात साफ लगती है कि बाज़ार अपने प्रचार तंत्र के साथ अनेक घटनाओं को रचता है। वह घटना के नायकों को धन देता है खलनायकों को पालता है। सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक आर्थिकीकरण ने हालत यह कर दिया है कि कोई भी आंदोलन धनपतियों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग के बिना चल ही नहीं सकता। ऐसे में अन्ना हज़ारे और स्वामी रामदेव के आंदोलनों का परिणाम जब तक प्रथ्वी पर प्रकट नहीं होता तब तक उन पर भी संदेह बना रहेगा। मतलब यह कि हम तो कथित सिविल सोसइटी और कथित नायकों के विरोध तथा संदेहास्पद रवैये से आगे जाकर अपनी बात कह रहे हैं जो कि स्वयं ही बाज़ार के प्रायोजित लगते हैं। हम जैसे लेखकों की जिज्ञासा के कारण ऐसे आंदोलनों में रु.िच रहती है। फिर जब बात योग शिक्षक की अध्यात्मिक से इतर गतिविधियों की हो और उनके विरोध करने वाले ज्ञान और सात्विकता से पैदल हों तो उनका प्रतिवाद करने का मजा किसी भी ऐसे योग साधक को आ सकता है जो हिन्दी में लिखना जानता हो। हिन्दी फिल्मों के जिन दो अभिनेताओं ने स्वामी रामदेव का विरोध किया है वह हिन्दी नहीं जानते कम से कम उनकी पत्रकार वार्ताऐं और टीवी साक्षात्कार देखकर तो यही लगता है। ऐसे में वह दोनों इस लेख को पढ़ेंगे या उनके समर्थक इसे समझेंगे यह खतरा कम ही हो जाता है। बहरहाल बुढ़ा चुके और अभिनय की बजारय विवादों से अधिक प्रचारित यह दोनों अभिनेता बाज़ार और प्रचारतंत्र के उस हिस्से के मुखौटे हैं जो स्वामी रामदेव के अभियान से भारतीय अध्यात्मिक दर्शन के प्रचार बढ़ने की आशंका से त्रस्त है। हालांकि ऐसा भी लगता है कि बाज़ार का दूसरा वर्ग उसे हिलाने के लिये भी ऐसे आंदेालन प्रायोजित कर सकता है यह बात हम लिख रहे हैं जो कि इन दोनों अभिनेताओं और सिविल सोसाइटी वालेां की हिम्मत नहीं है क्योंकि तब इनके आर्थिक स्वामियों की उंगली उठनी शुरु हो जायेंगी। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि हिन्दी से पैदल दोनों यह अभिनेता कहीं स्वामी रामदेव का विरोध इसलिये तो नहीं कर रहे क्योंकि वह हिन्दी के प्रचार का काम भी प्रारंभ कर चुके हैं।
मगर यह अनुमान ही है क्योंकि यह दोनों अभिनेता तो दूसरे के लिखे वाक्य बोलने के आदी हैं इसलिये संभव है कि बाजार और प्रचारतंत्र के संयुक्त प्रबंधकों का यह प्रयास हो कि इस आंदोलन की वजह से देश में किसी ऐसी स्थाई एकता का निर्माण न हो जाये जो बाद में उनके लिये विध्वंसकारी साबित हो। इसलिये साम्प्रदायिक बताकर इसे सीमित रखना चाहिए। शायद प्रबंधक यह नहीं चाहते हों कि कहीं उनका यह प्रायोजित अभियान कभी उनके लिये संकट न बन जाये। कहीं वह सिविल सोसाइटी और इन अभिनेताओं के माध्यम से इस अभियान से किसी वर्ग को दूर रहने का संदेश तो नहीं भेजा जा रहा।बाबा रामदेव के आंदोलन में चंदा लेने के अभियान पर उठेंगे सवाल-हिन्दी लेख (baba ramdev ka andolan aur chanda abhiyan-hindi lekh)अंततः बाबा रामदेव के निकटतम चेले ने अपनी हल्केपन का परिचय दे ही दिया जब वह दिल्ली में रामलीला मैदान में चल रहे आंदोलन के लिये पैसा उगाहने का काम करता सबके सामने दिखा। जब वह दिल्ली में आंदोलन कर रहे हैं तो न केवल उनको बल्कि उनके उस चेले को भी केवल आंदोलन के विषयों पर ही ध्यान केंद्रित करते दिखना था। यह चेला उनका पुराना साथी है और कहना चाहिए कि पर्दे के पीछे उसका बहुत बड़ा खेल है।उसके पैसे उगाही का कार्यक्रम टीवी पर दिखा। मंच के पीछे भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का पोस्टर लटकाकर लाखों रुपये का चंदा देने वालों से पैसा ले रहा था। वह कह रहा था कि ‘हमें और पैसा चाहिए। वैसे जितना मिल गया उतना ही बहुत है। मैं तो यहां आया ही इसलिये था। अब मैं जाकर बाबा से कहता हूं कि आप अपना काम करते रहिये इधर मैं संभाल लूंगा।’’आस्थावान लोगों को हिलाने के यह दृश्य बहुत दर्दनाक था। वैसे वह चेला उनके आश्रम का व्यवसायिक कार्यक्रम ही देखता है और इधर दिल्ली में उसके आने से यह बात साफ लगी कि वह यहां भी प्रबंध करने आया है मगर उसके यह पैसा बटोरने का काम कहीं से भी इन हालातों में उपयुक्त नहीं लगता। उसके चेहरे और वाणी से ऐसा लगा कि उसे अभियान के विषयों से कम पैसे उगाहने में अधिक दिलचस्पी है।जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्न है तो वह योग शिक्षा के लिये जाने जाते हैं और अब तक उनका चेहरा ही टीवी पर दिखता रहा ठीक था पर जब ऐसे महत्वपूर्ण अभियान चलते हैं कि तब उनके साथ सहयोगियों का दिखना आवश्यक था। ऐसा लगने लगा कि कि बाबा रामदेव ने सारे अभियानों का ठेका अपने चेहरे के साथ ही चलाने का फैसला किया है ताकि उनके सहयोगी आसानी से पैसा बटोर सकें जबकि होना यह चाहिए कि इस समय उनके सहयोगियों को भी उनकी तरह प्रभावी व्यक्तित्व का स्वामी दिखना चाहिए था।अब इस आंदोलन के दौरान पैसे की आवश्यकता और उसकी वसूली के औचित्य की की बात भी कर लें। बाबा रामदेव ने स्वयं बताया था कि उनको 10 करोड़ भक्तों ने 11 अरब रुपये प्रदान किये हैं। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली आंदोलन में 18 करोड़ रुपये खर्च आयेगा। अगर बाबा रामदेव का अभियान एकदम नया होता या उनका संगठन उसको वहन करने की स्थिति में न होता तब इस तरह चंदा वसूली करना ठीक लगता पर जब बाबा स्वयं ही यह बता चुके है कि उनके पास भक्तों का धन है तब ऐसे समय में यह वसूली उनकी छवि खराब कर सकती है। राजा शांति के समय कर वसूलते हैं पर युद्ध के समय वह अपना पूरा ध्यान उधर ही लगाते हैं। इतने बड़े अभियान के दौरान बाबा रामदेव का एक महत्वपूर्ण और विश्वसीनय सहयोगी अगर आंदोलन छोड़कर चंदा बटोरने चला जाये और वहां चतुर मुनीम की भूमिका करता दिखे तो संभव है कि अनेक लोग अपने मन में संदेह पालने लगें।संभव है कि पैसे को लेकर उठ रहे बवाल को थामने के लिये इस तरह का आयोजन किया गया हो जैसे कि विरोधियों को लगे कि भक्त पैसा दे रहे हैं पर इसके आशय उल्टे भी लिये जा सकते हैं। यह चालाकी बाबा रामदेव के अभियान की छवि न खराब कर सकती है बल्कि धन की दृष्टि से कमजोर लोगों का उनसे दूर भी ले जा सकती है जबकि आंदोलनों और अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी ही सफलता दिलाती है। बहरहाल बाबा रामदेव के आंदोलन पर शायद बहुत कुछ लिखना पड़े क्योंकि जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं वह इसके लिये प्रेरित करते हैं। हम न तो आंदोलन के समर्थक हैं न विरोधी पर योग साधक होने के कारण इसमें दिलचस्पी है क्योंकि अंततः बाबा रामदेव का भारतीय अध्यात्म जगत में एक योगी के रूप में दर्ज हो गया है जो माया के बंधन में नहीं बंधते।
आखिरी बात बाबा रामदेव के बारे में। देश का कोई मामूली योग साधक भी यह जानता है कि बचपन से योग साधना में रत रामकृष्ण यादव अब स्वामी रामदेव बन गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भौतिक से अधिक उनकी अभौतिक अध्यात्मिक शक्ति है। सिद्धि और चमत्कारों के लिये सर्वशक्तिमान की तरफ हाथ फैलाये रखने वाले लोग इस बात को नहीं समझेंगे कि योग साधना इंसान को कितना शारीरिक तथा मानिसक रूप से शक्तिशाली बनाती है। जबकि फिल्में और टीवी चैनल इस भ्रमपूर्ण संसार मे अधिक भ्रम फैलाते हैं और उनके नायक किंग, भगवान, बॉडी बिल्डर भले ही प्रचारित हों पर उनकी कोई व्यक्तिगत औकात नहीं होती। जो चाहे जैसा नचाता है नचा ले। जो बुलवाता है बुलवा ले। एक महायोगी की एक एक क्रिया, एक एक शब्द और एक एक कदम मौलिकता धारण किये होंता है। बाबा रामदेव के आंदोलन लंबा चलने वाला है। इस पर बहुत कुछ लिखना है और लिखेंगेे। बाबा रामदेव के हम न शिष्य हैं न समर्थक पर इतना जरूर कहते हैं कि योगियों की लीला अद्भुत होती है, कुछ वह स्वयं करते हैं कुछ योगामाता ही करवा लेती है। सो वह खास लोग जो आम जीवन शैली अपनाते हैं वह उनको समझाने से बाज आयें तो उनके लिये बेहतर रहेगा वरना वैसे ही वह भ्रमपूर्ण जीवन जीते हैं और योग का विरोध उनकी उलझने अधिक बढ़ायेगा।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर, मध्यप्रदेश
writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
http://dpkraj.blogspot.com
यह आलेख/हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।writer and editor-Deepak Bharatdeep,Gwalior, madhyapradesh
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ये दोनो भांड खान इसलिये विरोध कर रहे है क्यो कि इनका भी काला धन विदेशो मे जमा है.
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