हिंदी में जो भी टीवी चैनल हम देखते हैं उसमे प्रसारित हास्य हो या सामाजिक पृष्ठभूमि वाला धारावाहिक, उनकी कहानियों का आधार बड़े शहरों की बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले लोगों की दिनचर्या ही होती है। कहा जाता है की साहित्य समाज का दर्पण है और इन कहानियों को यदि साहित्य माना जाये तो फिर कहना पड़ेगा कि पूरा भारत एक सभ्य और सम्पन्न देश है। छोटे शहरों, गांवों और गली, मुहल्लों और छोटे बाजारों का अस्तित्व ही मिट चुका है। इसका आभास बहुत कम बुद्धिजीवियों को होगा कि वह बड़े शहरों से बाहर जिस समुदाय को केवल प्रयोक्ता या उपभोक्ता समझकर चल रहा है, वह छोटे शहरों और गांवों में रहता है वह मानसिक रूप से धीरे धीरे इस बात को समझता है कि देश के बड़े शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी, रचनाकार, साहित्यकार, चित्रकार और फिल्मकार उसके साथ विदेशी जैसा व्यवहार कर रहे हैं। देखा तो यह भी जा रहा है कि हमारे देश के प्रसिद्ध बौद्धिक पुरुष किसी न किसी विदेशी समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विचारधारा से प्रभावित होकर अपना काम करते हैं। छोटे शहरों में रहने वाले लेखक, कवि, रचनाकार तथा कलाकार भी इस बात को मानते हैं कि बड़े शहरों का न होने के कारण उनको कभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर नहीं आ सकते। इस तरह हम देश में एक वैचारिक विभाजन देख सकते हैं।
देश का शक्तिशाली बौद्धिक तबका अभी इस बात कि परवाह नहीं कर रहा है क्योंकि उसको लगता है कि देश में किसी भी प्रायोजित मुद्दे पर अपनी मुखर आवाज के दम पर चाहे जब लोगों को अपनी लय पर चला सकता है क्योंकि प्रचार माध्यम तो आखिर बड़े शहरों में ही चल रहे हैं और वहाँ केवल उसकी आवाज ही गूँजती है। सच कहें तो ऐसा लगता है कि देश केवल महानगर और राजधानियाँ रह गई हैं और छोटे श्हर उनके शासित प्रजा जहां के लोगों का अस्तित्व बेजुबानों से अधिक नहीं है।
कालांतर में इसके भयावह परिणाम होंगे। अभी तक देश का कथित बौद्धिक समुदाय सभी देश प्रेम तो कभी हादसों के समय समस्त लोगों को आंदोलित कर लेता है पर जैसे जैसे अधिक से अधिक लोगों में अपने छोटे शहर या गाँव की उपेक्षा का भाव होने की अनुभूति बढ़ती जाएगी वह उनके उठाया मुद्दों से विरक्ति दिखन लगेगा।
टीवी चैनलों की कहानियों और कथानक साहित्य नहीं होते यह हम विशाल भारत की स्थिति को देखें तो साफ दिखाई देता है। विदेशी प्रष्ठभूमि की कहानी को देशी पात्रों के मिश्रण से तैयार करना वैसे भी साहित्य नहीं होता। व्यावसायिक रूप से यह इसलिए लाभप्रद दिखता है क्योंकि जिस हालत में रहता है उसे विपरीत कहानी देखना और सुनना चाहता है। भारत में छोटे शहरों में रहने वाले लोग बहुमंजलीय इमारतों में रहने वाले पात्रों को इसलिए देखते हैं क्योंकि उनके घर वैसे नहीं हैं और न वैसा माहोल मिलता है। कालांतर में वह इससे उसक्ता जाएगा और तब चित्तन और मनन का जब दौर चलगा तब उसका सोच अपनी उपेक्षा की तरफ जाएगा। तब देश के कथित बौद्धिक समुदाय के मुद्दों पर ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देगा जैसी वह अपेक्षा करेगा।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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