उजाड़ के खेत खलिहान
वह पत्थरों के महल बनाएंगे,
जहां खड़े हैं पेड़ पौधे
वहाँ सभ्य इंसान बसाएँगे।
कहें दीपक बापू
जिन पथों पर आती थी
अश्वों के पदचाप की आवाज,
वहाँ विचर रहे रंगो से सजे लोहे के बाज़,
अंधेरे में चिराग की रोशनी
दिखाती रही राह बरसों तक,
अब उगलती हैं बाज़ की आँखें
भ्रमित करने वाली आग
अपने नज़र पर भी होता शक,
इस छोर से उस छोर तक
वह विकास का पथ ऐसे ही बनाएंगे,
जरूरत पड़ी तो
जिंदा इंसानों को लाशों की तरह सजाएँगे।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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