शब्द मोतियों का ग्रंथों में भंडार, अर्थ खरीदने न जायें
बाज़ार।
‘दीपकबापू’ योग बुद्धि बनायें पारस, स्वर्ग तलाशते न
घूमें लाचार।।
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वाणी से बरसे तीखे शब्द, ज्ञान का प्रमाण
नहीं हो जाते।
‘दीपकबापू’ मंच के चुटकुले, सत्य के प्राण नहीं
हो जाते।।
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हृदय में कंटक वाणी में फूल, दोहरेपन के झूले
में इंसान रहे झूल।
दीपकबापू त्रिगुणमयी माया है, ज़मीन से सोने के
साथ बसे धूल।।
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संवेदनाओं पर कर रहे शोध, हृदय में स्पंदन
नहीं है।
दीपकबापू नीम के पेड़ सजे, दिखते पर चंदन नहीं
है।।
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शस्त्र से जीते जाते पत्थर, दिल ज्ञान से ही
जीते जाते हैं।
‘दीपकबापू’ डर कराये पूजा, प्यार से ही इंसान
जीते जाते हैं।।
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बंदर से बना आदमी मुटिया गया, अब कलाबाजियां नहीं
खा सकता।
‘दीपकबापू’ कौओं का मार छीना सुर, मीठे स्वर में गा
नहीं सकता।।
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अर्थशास्त्र से अनर्थ का खेल, महंगाई मानते विकास
का खेल।
‘दीपकबापू’ पायें पढ़ तोपची पद, क्या समझेंगे विनाश
का खेल।।
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सुनने वाली भीड़ सामने खड़ी, लंबी जीभ भटक ही
जाती है।
दीपकबापू बुलंदी का भ्रम बुरा, छोटी बुद्धि अटक
ही जाती है।।
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सम्मान का खेल बहुत खेले हैं, काफीघर में डोसे
भी बहुत पेले हैं।
‘दीपकबापू’ राजकाज बदला, खिलाड़ी भीड़ में अब
खड़े अकेले हैं।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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