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Friday, October 23, 2009

कंप्यूटर पर भाषा सौंदर्य का ध्यान रखना कठिन-आलेख (computer and hindi bhasha-a hindi article)

कंप्यूटर पर लिखना इतना आसान काम नहीं है जितना समझा जाता है। दरअसल कंप्यूटर पर विचारों के क्रम के अनुसार अपनी सभी उंगलियां सक्रिय रखनी पड़ती हैं और उससे रचना सामग्री में भाषा सौंदर्य बनाये रखना सहज नहीं रह जाता। अगर वाक्य लंबा हो तो अनेक बार ‘होता है’, ‘रहता है’, ‘आता है’ तथा ‘जाता है’ जैसी क्रियाओं का दोहराव दिखने लगता है। इसका कारण यह है कि कंप्यूटर पर दिमाग तीन भागों में बांटना संभव नहीं लगता। एक तो आप विषय सामग्री पर चिंतन करते हैं दूसरी तरफ अपनी उंगलियों पर नियंत्रण का भी प्रयास करना होता है। ऐसे में भाषा सौंदर्य की सोचने की प्रक्रिया में लिप्त होना संभव नहीं है। फिर अगर आप अंतर्जाल पर कार्य कर रहे हैं और उससे आपको कोई आय नहीं है तो एक तरह से उन्मुक्तता का भाव उत्पन्न होकर नियंत्रित होने की शर्त से मुक्त कर देता है। यही कारण है कि अंतर्जाल पर आम तौर से भाषा सोंदर्य का अभाव दिखाई देता है। यही कारण अंतर्जाल पर गंभीर लेखन को प्रोत्साहित न करने के लिये जिम्मेदार है।
गंभीर लेखन के लिये एक तो स्थितियां अनुकूल नहीं है। आप किसी विषय पर बहुत गंभीरता से लिखें पर उसका उपयोग करने वाले आपका नाम तक न डालें या आपके विचार से प्रभावित होकर उसे अपने नाम से रखें तब निराशा उत्पन्न होती है। ऐसे में गंभीर लेखन की धारा प्रभावित होगी। साथ ही अगर गंभीर लेखक अगर केवल इसलिये लिखे कि उसका नाम चलता रहे तो वह उथली रचनायें लिखने में भी नहीं हिचकेगा।

कंप्यूटर पर लिखना आसान नहीं है और समस्या यह है कि इसके बिना अब काम भी नहीं चलने वाला। उस दिन एक अध्यात्मिक प्रकाशन की मासिक पत्रिका देखने को मिली। उत्सुकतावश उसे पढ़ा तो अनेक बार ऐसा लगा जैसे कि उसकी विषय सामग्री को गेय करने में बाधा आ रही है। उसका कारण उसमें एक ही वाक्य में क्रियाओं का अनावश्यक रूप से दोहराव था। अगर लेखक चाहता तो संपादन के समय एक ही वाक्य में कम से कम दस से पंद्रह शब्द कम कर सकता था। यह केवल एक जगह नहीं बल्कि उस पत्रिका के समस्त लेखों में दिखाई दिया। ऐसा लगता ँँथा कि प्रकाशकों का उद्देश्य केवल पत्रिका प्रकाशित करना था। वैसे उसके पाठकों का भी यही आलम होगा कि वह पत्रिका केवल पुण्य प्राप्त करने के लिये मंगवाते होंगे न कि पढ़ने के लिये-ऐसी पत्रिकाओं ने भी व्यवसायिक हिंदी पत्र पत्रिकाओं का कबाड़ा किया है इसमें संदेह नहीं है।
ऐसे लेख अनेक जगह पढ़कर लगता है कि लिखने वाले का उद्देश्य सीमित विचारों को अधिक शब्दों के सहारे विस्तार देना है। इसके अलावा लिखने वाले ने उसे सीधे कंप्यूटर पर ही लिखा होगा। कंप्यूटर पर लिखने के बाद उसे दोबारा पढ़ना एक उबाऊ काम है। इसलिये सीधे ही प्रकाशित करना या कहीं भेजने में उतावली करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर हिंदी लेखकों को अभी भी व्यवसायिक स्तर पर कोई अधिक सफलता नहीं मिल पायी-खासतौर से मौलिक और स्वतंत्र लिखने वालों की तरफ तो कोई झांकता भी नहीं है। ऐसे में हिंदी का लेखन प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सका तो उसमें आश्चर्य क्या है।
हाथ से लिखते समय अपने विचारों के क्रम के साथ ही भाषा से सुरुचिपूर्ण शब्दों का प्रवाह स्वतः चला आता है क्योंकि उस समय कलम पकड़े हाथों की उंगलियां मशीनीढंग से कार्यरत होती और उनको निर्देश देने में मस्तिष्क को प्रयास नहीं करना पड़ता-एक तरह से दोनों ही एक दूसरे का भाग होते हैं। हिंदी लिखने वाले कई ऐसे लोग इस देश में होंगे जिनको प्रकाशित होने के अवसर नहीं प्राप्त कर सके। हिंदी में अभी तक संगठित क्षेत्र-समाचार पत्र पत्रिकाओं और व्यवसाय प्रकाशकों के अधीन लेखन-का ही वर्चस्व रहा है। ऐसे में प्रतिबद्ध लेखन की धारा ही प्रवाहित होती रही है और स्वतंत्र मौलिक विषय सामग्री मार्ग अवरुद्ध होता है इधर अंतर्जाल पर लग रहा था कि स्वतंत्र और मौलिक लेखकों को प्रोत्साहन मिलेगा पर प्रतीत होता है कि संगठित क्षेत्र के प्रचार माध्यम उस पर पानी फेर सकते हैं। वही क्या अंतर्जाल पर ही सक्रिय कुछ तत्व दूसरे की रचनाओं से नकल कर लिख रहे हैं और उनमें इतनी सौजन्तया नहीं दिखाते कि लेखक का नाम लें। यह नकल केवल शब्दों की नहीं वरना विचारों की भी है। वह दूसरे से विचार लिखकर ऐसे लिखते हैें जैसे कि उनके मौलिक विचार हों। यह सही है कि विचारों में समानता हो सकती है पर शैली में बदलाव रहेगा यह निश्चित है-उससे यह तो पता लगता है कि विचार कहां से लिये गये हैं।
अंतर्जाल पर कुछ लोग गजब का लिख रहे हैं। उनके लिखे को पढ़ने से यह पता लगता है कि उनके विचारों में संगठित क्षेत्र के लेखकों जैसी कृत्रिमता का भाव नहीं है। समस्या यह है कि अंतर्जाल पर स्वतंत्र और मौलिक लेखन का तात्पर्य है जेब से पैसे खर्च करने के साथ ही श्रम साध्य कार्य में उलझना। इस पर संगठित क्षेत्र के लेखकों का रवैया ब्लाग लेखकों के प्रति कितना उपेक्षापूर्ण है यह देखकर दुःख होता है। ओबामा को नोबल और गांधीजी पर इस लेखक के दो पाठों से एक अखबार के स्तंभकार ने कई पैरा कापी कर अपने लेख में छापे। उसका लेख बढ़ा था और ऐसा लगता था कि उसने अन्य जगह से भी उसकी नकल की होगी। संभव है उसने स्वयं भी लिखा हो। क्या होता अगर वह अपने लेख में इस लेखक का नाम भी उद्धृत कर देता। इससे वह क्या छोटा हो जाता? संभवतः संगठित क्षेत्र के लेखकों पर जल्दी सफलता का भूत सवार है और ब्लाग लेखक उनके लिये फालतू व्यक्ति है या वह उसी तरह गुलाम है जैसे कि वह अपने संगठनों के हैं।
संगठित क्षेत्रों में घुसे लोग भी क्या करें? वेतन या शुल्क से ही उनके घर चलते हैं। इसलिये उनको जहां से जैसा मिलता है वैसा ही वह अपने नाम से कर लेते हैं। यकीनन वह कंप्यूटर पर ही काम करते हैं और इंटरनेट की सुविधा होने से उनके लिये लिखने में अधिक समय नहीं लगता क्योंकि केवल कापी ही तो करनी है? यह लेखक शिकायत नहीं कर रहा है बल्कि उस लेख में अपने अंशों को पढ़ने से ही यह पता लगा कि उसमें क्रियाओं का दोहराव था जो कि गुस्सा कम दुःख अधिक दे रहे थे। वह आईना दिखा रहे थे कि ‘देखों क्या कचड़ा लेखन करते हो?‘
संयोगवश एक दो दिन बाद ही अध्यात्मिक पत्रिका पर नजर पडी तब पता लगा कि हमारा लिखा पढ़ने में कितना तकलीफदेह है। कभी कभी तो इच्छा होती है कि अपने हाथ से लिखकर ही टाईप करें फिर लगता है कि ‘यार, कौनसा यहां पैसा मिल रहा है।’ वैसे इस लेखक ने अपने जीवन की शुरुआत ही एक अखबार में आपरेटर के रूप में कंप्यूटर पर अपनी कविता लिखने से की थी। आज से तीस साल पहले। हां, एक बात लगती है कि चूंकि यह लेखक घर पर ही कंप्यूटर पर लिखने का काम करता है तब बीच में अन्य काम भी करने पड़ते हैं। कोई आ जाता है तो मिलना पड़ता है। कहीं स्वयं जाना पड़ता है। ऐसे में बड़े लेख एक बैठक में टाईप नहीं होते। फिर घर में बैठे अनेक प्रकार के अन्य विचार भी आते हैं। यह भी किसी से नहीं कहा जा सकता कि ‘हम कोई काम कर रहे हैं।’ अगर कहें तो पूछेंगे कि इसमें आपको मिलता क्या है? फिर कभी कभी तबियत खराब हो जाये तो कहते हैं कि यह सब कंप्यूटर की वजह से हुआ है।
वैसे दुनियां ही फालतू कामों में लगी है पर लेखक का लिखना उनके लिये तब तक फालतू है जब तक उससे कुछ नहीं मिलता हो। ऐसे में लगता है कि अंतर्जाल पर हिंदी में लिखकर कोई असाधारण लिखकर भी नाम और नामा नहीं कमा सकता अलबत्ता उसका लिखे विचार और विषयों की कापी कर संगठित क्षेत्र के लेखक ही बल्कि अंतर्जाल के लेखक भी अपनी रचना सामग्री सजायेंगे। कम से कम अभी तो यही लगता है। आगे क्या होगा कहना मुश्किल है।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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