हमारे देश राजतंत्र समाप्त होने के बाद
लोकतांत्रिक प्रणाली अपनायी गयी जिसमें चुनाव के माध्यम से जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं। भारत एक बृहद होने के साथ भौगोलिक विविधता वाला
देश है। लोकसभा राष्ट्रीय, विधानसभा
प्रादेशिक, नगर परिषद तथा पंचायत
स्थानीय स्तर पर प्रशासन की देखभाल करती हैं। देखा जाये तो राजतंत्र में राजा के
चयन का आधार सीमित था इसलिये आम आदमी राजकीय कर्म में लिप्त होने की बात कम ही
सोचता था। हालांकि इस संसार में अधिकतर लोग राजसी प्रवृत्ति के ही होते हैं पर
राजतंत्र के दौरान क्षेत्र व्यापार, कला, धर्म तथा प्रचार के
अन्य क्षेत्रों में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने तक ही उनका प्रयास सीमित था।
लोकतंत्र ने अब उनको आधुनिक राजा बनने की सुविधा प्रदान की है। चुनावों में वही आदमी जीत सकता है जो आम मतदाता
के दिल जीत सके। बस यहीं से नाटकीयता की
शुरुआत हो जाती है। स्थिति यह है कि कला,
पत्रकारिता, फिल्म, टीवी
तथा धर्म के क्षेत्र में लोकप्रिय होता है वही चुनाव की राजनीति करने लगता है।
वैसे राजनीति राजसी कर्म की नीति का परिचायक होती है जो अर्थोपार्जन की हर
प्रक्रिया का भाग होता है। राज्यकर्म तो
इस प्रक्रिया का एक भाग होता है। राजनीति उस हर व्यक्ति को करना चाहिये जो नौकरी,
व्यापार अथवा उद्योग चला रहा है। केवल चुनाव ही राजनीति नहीं होती पर माना यही
जाने लगा है।
इससे हुआ यह है कि बिना राजनीति शास्त्र ज्ञान
के लोग पदों पर पहुंच जाते हैं पर काम नहीं कर पाते। राजकीय कर्म की नीतियां
हालांकि परिवार के विषय से अलग नहीं होती पर जहां परहित या जनहित का प्रश्न हो
वहां शिखर पुरुषों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है। इसलिये राजनीति शास्त्र का उनको आम इंसान से
अधिक होना आवश्यक है। भारत में आर्थिक,
सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं से हमेशा ही लोगों में अंतर्द्वंद्व देखा गया
है। देखा यह गया है कि रचनात्मक दृष्टिकोण
वाला व्यक्ति लंबे समय तक अपना स्थान बनाये रखता है पर अनवरत अंतर्द्वंद्व की
प्रक्रिया के बीच जब कोई विध्वंसक प्रवृत्ति का व्यक्ति खड़ा हो जाता है तो
तनावग्रस्त समाज में उसकी छवि नायक की बन जाती है। दूसरी बात यह है कि जब लोग अपनी
समस्याओं से जूझते हैं तब उनके बीच जोर से ऊंची आवाज में बगावत की बात कहने से
लोकप्रियता मिलती है। यही लोकप्रियता
चुनाव जीतने का आधार बनती है। इससे उन
लोगों को जनप्रतिनिधि होने का अवसर भी मिल
जाता है जो बगावती तेवर के होते है पर उनमें रचनात्मकता का अभाव होता है।
मनु स्मृति में कहा गया है कि
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साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक।
विजेतुः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचत्।।
हिन्दी
में भावार्थ-अपने राजनीतिक
अभियान में सफलता की कामना रखने वाले पुरुष को साम, दाम तथा भेद नीतियों के माध्यम से पहले अपने अनुकूल
बनाना चाहिये। जब यह संभव न हो तभी दंड का प्रयोग करना श्रेयस्कर है।
उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम।
बुत्तों च दैवे बुध्यते जयप्रेप्सुरपीतभीः।।
हिन्दी
में भावार्थ-राजनीतिक अभियान
में पहले अपने विरोधी पक्ष के लालची लोगों को अपने पक्ष में करना चाहिये। उनसे
अपने विरोधी पक्ष की नीति तथा कमजोरी का पता लगाकर अपने अभियान को सफल बनाने का
प्रयास करना चाहिये।
हमारे देश में अनेक प्रकार के राजनीतिक
परिदृश्य देखने को मिले हैं। अनेक संगठन
बने और बिगड़े पर देश की राजनीतिक, आर्थिक
तथा सामाजिक स्थिति यथावत रही। नारे लगाकर
अनेक लोग सत्ता के शिखर पर पहुंचे राजनीति तथा प्रशासन का ज्ञान न होने की वजह से
वह प्रजाहित की सोचते तो रहे पर आपने कार्यक्रम क्रियान्वित नहीं कर सके। साहित्य,
कला, फिल्म तथा पत्रकारिता के साथ ही जन समस्याओं के लिये
जनआंदोलन करने वाले लोग जनमानस में लोकप्रियता प्राप्त कर चुनाव जीत जाते हैं पर
जहां प्रशासन चलाने की बात आये वहां उनकी योग्यता अधिक प्रमाणित नहीं हो पाती।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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