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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

Sunday, April 6, 2008

साहब होने के सपने देखते और गुलाम बन जाते-हिन्दी क्षणिकाएँ

साहब जैसी जिंदगी जीने का
सपना लिये निकलते हैं सब
किताबें-दर-किताबें पढ़ते जाते
अपना पसीना बहाते हुए
कागजों के ढेर के ढेर रंगते जाते
फिर नौकरी पाने की कतार में
बड़ी उम्मीद के साथ खडे हो जाते
पता ही नहीं चलता गुलाम बन जाते कब
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साहब क्या जाने गुलाम का दर्द
उनको मालुम रहते अपने हक
याद नहीं रहते फर्ज
उनका किया सब जायज
क्योंकि एक ढूंढो हजार लोग
गुलामी के लिये मिल जातें
साहब बनने की दौड़ में
भला कितने दौड़ पाते
साहब तो टपकते हैं आकाश से
क्या जानेंगे धरती के गुलामों का दर्द
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1 comment:

राज भाटिय़ा said...

दीपक भाई आजकल तो गुलाम भी अग्रेजी बोलने वाले भी मिलते हे

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