चलती फिरती दुकान हो गयी
विज्ञापन का कोई झंझट नहीं
उनकी करतूतों की खबर सरेआम हो गयी
कहीं विचारधारा का बोर्ड लगा है
कहीं भाषा का नाम टंगा है
कहीं धर्म के नाम से रंगा है
जज्बातों का तो बस नाम है
सारी दुनियां मशहूरी उनके नाम हो गयी
बिना पैसे खिलौना नहीं आता
उनके हाथ में बम कैसे चला आता
फुलझड़ी में हाथ कांपता है गरीब बच्चे का
उनके हाथ बंदूक कैसे आती
गोलियां क्या सड़क पड़ उग आती
सवाल कोई नहीं पूछता
चर्चाएं सब जगह हो जाती
गंवाता है आम इंसान अपनी जान
कमाता कौन है, आता नहीं उसका नाम
दहशत कोई चीज नहीं जो बिके
पर फिर भी खरीदने वाले बहुत हैं
सपने भी भला जमीन पर होते कहां
पर वह भी तो हमेशा खूब बिके
हाथ में किसी के नहीं खरीददार उनके भी बहुत हैं
शायद मुश्किल हो गया है
सपनों में अब लोगों को बहलाना
इसलिये दहशत से चाहते हैं दहलाना
आदमी के दिल और दिमाग से खेलने के लिये
सौदागरों को कोई तो चाहिए बेचने के लिये खिलौना
इसलिये एक मंडी दहशत के नाम हो गयी
..........................................
यह कविता मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ के नाम पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
कवि और संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
नमस्कार दीपक जी
एक अच्छी कविता और ब्लॉग्स पे आपके लेखन की सक्रियता के लए आपको बहुत बधाई
कल बेंगलोर के धमाके से मान बड़ा आहत हुआ
इसी को लेकर एक आव्हान के तौर पर आज मैने एक शेर पोस्ट किया है
" इस धरा पर दोस्तों फिर गिद्ध मंडराने लगे
मौत का सामान फ़ि जुटने लगा ,कुछ कीजिए ...."
शेष रचना के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा मे
डॉ.उदय 'मणि ' कौशिक
Post a Comment