सारी चिंताओं ने उन्हें घेर लिया
उठाकर घूम रहे बोझा अपने सिर पर
न काम याद आता न घर
किया जब किसी ने उनसे सवाल तो बोले
‘बस, चिंतन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला
किसी तरह होना है मुझे अमर’
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एक ने कहा
‘चलो चिंतन सम्मेलन में चलें
अपने विचार इस तरह रखें कि
लोग हमारी बौद्धिकता पर जलें
मुझे तो कुछ आता नहीं
तुम ही कुछ बोल देना
याद रखना लोग कुछ न समझें
बस, हैरान परेशान हो जायें’
दूसरे ने कहा
‘अपनी चिंताओं का बोझ उठाये
भला मैं क्या बोल पाऊंगा
लोग समझें नहीं
हैरान और परेशान हो जायें
इस सोच से ही मैं घबड़ा जाता हूं
अपने को बेबस पाता हूं
ऐसे चिंतन से क्या फायदा जो
चिंताओं को बुलाकर अपने ही हाथ मलें
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यह कविता दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका पर लिखा गया है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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