फूल रहे हैं काया से
अपने जेब का बोझ नहीं उठा पाते
दूसरे की कविता को छ्रटांक भर का बताते
दोष उनका नहीं जमाने का है
जिन पर है माया का वरदहस्त
हो जाते हैं वह बोलने में मस्त
रचना किसे कहते हैं जानते नहीं
दूसरे के शब्दों को पढ़ते नहीं
कोई बताये तो अर्थ मानते नहीं
चंद किताबों से उठाये शब्द
यूं बाजार में ले जाते
साथ में पैसे भर घर ले आते
बड़े शहरों मे रहते
छोटे शहर के कवि को भी छोटा बताते ं
मगर सच भला किससे छिपता है
लिख लिख कर नाम और नामा कमाया
अपने ऊपर व्यवसायिक लेखक का तमगा लगाया
फिर भी नहीं बन पाये लोगों के नायक
पेशेवरों के ही रहे शब्द गायक
छटांक भर की कविता है तो क्या
लोगों के दिल में बैठ जाती है
देखने के छंटाक भर की लगे
भाव दिखाये गहरा
वही कविता कहलाती है
कहें महाकवि दीपक बापू
यूं तो तुम गाये जाओ
फब्तियां हम कसकर सभी से वाह वाह पाओ
हम छटांक भर की कविता से
लोगों के दिल में छाये जाते
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