चमकती है प्रतिष्ठा देह नहीं
पालता है अन्न पत्थर नहीं
ओ! जमाने को उसूलों के बयां करने वालों
आकाश से कोई चीज जमीन पर
आकर टपकती नहीं
धरती पर उगती नहीं
उन चीजों की शौहरत को ही
असली सच बताकर
मत बहलाओ भोले लोगों को
जो बनती बिगड़ती हैं यहीं
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दुनियां में जितने खिलौने हैं
जब तक खेलें उनके साथ ठीक
बिगड़्र जायें तो खुद को ही ढोने हैं
खुद से ही बहलायें दिल तो कितना अच्छा
काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल
ऐसे ही बीज हमको बोने हैं
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यह कविता दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका पर लिखा गया है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप
2 comments:
आप अपनी कविताओं की किताब छपवाने के विषय में गंभीरता से सोचें.शुभकामनाऐं.
आपको जन्माष्टमी की बधाई एवं शुभकामनाएं..
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