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Tuesday, January 21, 2014

कागजी नाव-हिन्दी व्यंग्य कविता (kagzi naav-hindi vyangya kavita)




वह ठहरे हल्के इंसान
चेहरे पर रोज नया मुखौटा लगाकर आते हैं,
गंभीरता का करते हैं नाटक
जल्दी ही जोकर हो जाते हैं।
कहें दीपक बापू
वादों पर कभी वह खरे उतर सकते नहीं,
अपने भरोसे पर यकीन खुद करते नहीं,
यह प्रचार का खेल हैं
जहां उनकी काली नीयत भी सुंदर नज़र आती है,
फरेबी अदायें महंगी बिक जाती हैं,
सौदागर बेच रहे बाज़ार में कागजी ख्वाब,
कारिंदों करें कारिस्तानी वह दिखायें रुआब,
सियायत हो या ज़माने का भला
कामयाब खिलाड़ी वही नज़र आते हैं,
वादों से वफादारी निभाने के बजाय
कागजी नाव जो चला पाते हैं।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak raj kukreja "Bharatdeep",Gwalior madhya pradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर  

athor and editor-Deepak  "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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